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बाक़र मेहदी

1927 - 2006 | मुंबई, भारत

प्रमुख आलोचक, अपनी बेबाकी और परम्परा-विरोध के लिए विख्यात

प्रमुख आलोचक, अपनी बेबाकी और परम्परा-विरोध के लिए विख्यात

बाक़र मेहदी

लेख 14

उद्धरण 19

आज़ादी की ख़्वाहिश ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं पैदा होती। इसके लिए बड़ा ख़ून पानी करना पड़ता है, वर्ना अक्सर लोग उन्हीं ‎राहों पर चलते‏‎ रहना पसंद करते हैं जिन पर उनके वालिदैन अपने नक़्श-ए-पा छोड़ गए हैं।

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अदब की तख़लीक़ एक ग़रीब मुल्क में पेशा भी नहीं बन सकती और इस तरह बेशतर अदीब-ओ-शाइ'र इतवारी‏‎ ‎मुसव्विर (SUNDAY PAINTERS‏‎) की ज़िंदगी बसर करते हैं, या'नी ज़रूरी कामों से फ़ुर्सत मिली तो पढ़ लिख लिया।

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आदमी जज़्बात को मुन'अकिस करने के बा-वजूद आईने से मुशाबेह नहीं है और यहीं से सारी पेचीदगी शुरू' है।

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इंसानी तारीख़ एक मआ'नी में इक़्तिदार की जंग की तारीख़ कही जा सकती है।

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हम आज के दौर को इसलिए तनक़ीदी दौर कहते हैं कि तख़लीक़ी अदब की रफ़्तार कम है और मे'यारी चीज़ें नहीं ‎लिखी जा रही ‎‏हैं।

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रेखाचित्र 2

 

अशआर 20

सैलाब-ए-ज़िंदगी के सहारे बढ़े चलो

साहिल पे रहने वालों का नाम-ओ-निशाँ नहीं

मुझे दुश्मन से अपने इश्क़ सा है

मैं तन्हा आदमी की दोस्ती हूँ

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फ़ासले ऐसे कि इक उम्र में तय हो सकें

क़ुर्बतें ऐसी कि ख़ुद मुझ में जनम है उस का

जाने क्यूँ उन से मिलते रहते हैं

ख़ुश वो क्या होंगे जब ख़फ़ा ही नहीं

आज़मा लो कि दिल को चैन आए

ये कहना कहीं वफ़ा ही नहीं

ग़ज़ल 34

नज़्म 20

रुबाई 30

पुस्तकें 41

ऑडियो 20

अब ख़ानुमाँ-ख़राब की मंज़िल यहाँ नहीं

इश्क़ की सारी बातें ऐ दिल पागल-पन की बातें हैं

इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं

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