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सय्यद एहतिशाम हुसैन

1912 - 1972 | इलाहाबाद, भारत

प्रगितिशील आंदोलन से जुड़े प्रमुख आलोचक

प्रगितिशील आंदोलन से जुड़े प्रमुख आलोचक

सय्यद एहतिशाम हुसैन

लेख 29

उद्धरण 13

ज़बान पहले पैदा हुई और रस्म-ए-ख़त बाद में। मैं इससे यह नतीजा निकालता हूँ कि ज़बान और रस्म-ए-ख़त में कोई बातिनी ताल्लुक़ नहीं है, बल्कि रस्मी है और अगर यह बात तस्लीम कर ली जाये तो ज़बान और रस्म-ए-ख़त के मुताल्लिक़ जो बहस जारी है वो महदूद हो सकती है।

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तंज़ का पौधा मुआशरती हैजान और सियासी कश्मकश की हवाओं में पनपता है।

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तन्हाई का एहसास अगर बीमारी बन जाये तो उसी तरह आरज़ी है जैसे मौत का ख़ौफ़।

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शायद यह बहस कभी ख़त्म होगी कि नक़्क़ाद की ज़रूरत है भी या नहीं। बहस ख़त्म हो या हो, दुनिया में अदीब भी हैं और नक़्क़ाद भी।

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सबसे ज़्यादा जो बुत इन्सान की राह में हायल होता है वो आबा-ओ-अज्दाद की तक़लीद और रस्म-ओ-रिवाज की पैरवी का बुत है। जिसने उसे तोड़ लिया उसके लिए आगे रास्ता साफ़ हो जाता है।

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अशआर 8

तेरा ही हो के जो रह जाऊँ तो फिर क्या होगा

जुनूँ और हैं दुनिया में बहुत काम मुझे

जाने हार है या जीत क्या है

ग़मों पर मुस्कुराना गया है

मैं समझता हूँ मुझे दौलत-ए-कौनैन मिली

कौन कहता है कि वो कर गए बदनाम मुझे

मंज़िल मिली तो ग़म नहीं है

अपने को तो खो के पा गया हूँ

यूँ गुज़रता है तिरी याद की वादी में ख़याल

ख़ारज़ारों में कोई बरहना-पा हो जैसे

ग़ज़ल 14

नज़्म 1

 

पुस्तकें 112

ऑडियो 5

अक़्ल पहुँची जो रिवायात के काशाने तक

उन आँखों को नज़र क्या आ गया है

ग़म में इक मौज सरख़ुशी की है

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