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सय्यद एहतिशाम हुसैन

1912 - 1972 | इलाहाबाद, भारत

प्रगितिशील आंदोलन से जुड़े प्रमुख आलोचक

प्रगितिशील आंदोलन से जुड़े प्रमुख आलोचक

सय्यद एहतिशाम हुसैन

लेख 29

उद्धरण 13

तन्हाई का एहसास अगर बीमारी बन जाये तो उसी तरह आरज़ी है जैसे मौत का ख़ौफ़।

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ग़ज़ल अपने मिज़ाज के एतबार से ऊँचे और मुहज़्ज़ब तबक़े की चीज़ है। इसमें आम इन्सान नहीं आते।

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उर्दू शायरी का पस-मंज़र पूरी ज़िंदगी है।

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तंज़ का पौधा मुआशरती हैजान और सियासी कश्मकश की हवाओं में पनपता है।

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समाजी कश्मकश से पैदा होने वाले अदब का जितना ज़ख़ीरा उर्दू में फ़राहम हो गया है, उतना शायद हिन्दुस्तान की किसी दूसरी ज़बान में नहीं है।

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अशआर 8

तेरा ही हो के जो रह जाऊँ तो फिर क्या होगा

जुनूँ और हैं दुनिया में बहुत काम मुझे

दिल ने चुपके से कहा कोशिश-ए-नाकाम के बाद

ज़हर ही दर्द-ए-मोहब्बत की दवा हो जैसे

जाने हार है या जीत क्या है

ग़मों पर मुस्कुराना गया है

मंज़िल मिली तो ग़म नहीं है

अपने को तो खो के पा गया हूँ

यूँ गुज़रता है तिरी याद की वादी में ख़याल

ख़ारज़ारों में कोई बरहना-पा हो जैसे

ग़ज़ल 14

नज़्म 1

 

पुस्तकें 120

ऑडियो 5

अक़्ल पहुँची जो रिवायात के काशाने तक

उन आँखों को नज़र क्या आ गया है

ग़म में इक मौज सरख़ुशी की है

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