इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
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इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
दो रोज़ की महफ़िल है इक 'उम्र की तन्हाई
फैली हैं फ़ज़ाओं में इस तरह तिरी यादें
जिस सम्त नज़र उट्ठी आवाज़ तिरी आई
इक नाज़ भरे दिल में ये 'इश्क़ का हंगामा
इक गोशा-ए-ख़लवत में ये दश्त की पहनाई
औरों की मोहब्बत के दोहराए हैं अफ़्साने
बात अपनी मोहब्बत की होंटों पे नहीं आई
अफ़्सून-ए-तमन्ना से बेदार हुई आख़िर
कुछ हुस्न में बे-ताबी कुछ 'इश्क़ में ज़ेबाई
वो मस्त निगाहें हैं या वज्द में रक़्साँ है
तसनीम की लहरों में फ़िरदौस की रा'नाई
इन मध-भरी आँखों में क्या सेहर 'तबस्सुम' था
नज़रों में मोहब्बत की दुनिया ही सिमट आई
- पुस्तक : sau-e-baar-e-chaman mahka (पृष्ठ 114)
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