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अफ़ीफ़ सिराज

1979 | दिल्ली, भारत

अफ़ीफ़ सिराज

ग़ज़ल 18

नज़्म 3

 

अशआर 18

इस क़दर डूबे गुनाह-ए-इश्क़ में तेरे हबीब

सोचते हैं जाएँगे किस मुँह से तौबा की तरफ़

ख़्वाब-आलूद निगाहों से ये कहता गुज़रा

मैं हक़ीक़त था जो ता'बीर में रक्खा गया था

बस्ती तमाम ख़्वाब की वीरान हो गई

यूँ ख़त्म शब हुई सहर आसान हो गई

बहुत शगुफ़्ता-ओ-रंगीन गुफ़्तुगू है 'सिराज'

चमन में बात तिरी रंग-ओ-बू से खेलेगी

मैं हिकायत-ए-दिल-ए-बे-नवा में इशारत-ए-ग़म-ए-जाविदाँ

मैं वो हर्फ़-ए-आख़िर-ए-मोतबर जो लिखा गया पढ़ा गया

पुस्तकें 1

 

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