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अख़तर इमाम रिज़वी

अख़तर इमाम रिज़वी

ग़ज़ल 11

अशआर 15

कम-ज़र्फ़ ज़माने की हिक़ारत का गिला क्या

मैं ख़ुश हूँ मिरा प्यार समुंदर की तरह है

अब भी आती है तिरी याद इस कर्ब के साथ

टूटती नींद में जैसे कोई सपना देखा

तोड़ भी दो एहसास के रिश्ते छोड़ भी दो दुख अपनाने

रो रो के जीवन काटोगे रो रो के मर जाओगे

मुझ को मंज़िल भी पहचान सकी

मैं कि जब गर्द-ए-सफ़र से निकला

अपनों की चाहतों ने भी क्या क्या दिए फ़रेब

रोते रहे लिपट के हर इक अजनबी के साथ

चित्र शायरी 1

 

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