भारत भूषण पन्त के शेर
घर से निकल कर जाता हूँ मैं रोज़ कहाँ
इक दिन अपना पीछा कर के देखा जाए
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एक जैसे लग रहे हैं अब सभी चेहरे मुझे
होश की ये इंतिहा है या बहुत नश्शे में हूँ
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हर तरफ़ थी ख़ामोशी और ऐसी ख़ामोशी
रात अपने साए से हम भी डर के रोए थे
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
और मैं बाहर से अंदर की तरह लगने लगा
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ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
लेकिन इक आहट जानी-पहचानी होती है
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सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था
मिरे घर में सभी कम बोलते थे
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टैग : ख़ामोशी
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याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
या बहुत मसरूफ़ हूँ मैं या बहुत फ़ुर्सत में हूँ
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कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
नींद आ जाती थी परियों की कहानी सुन कर
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इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी
पागलों को पागलों से दूर रहना चाहिए
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जाने कितने लोग शामिल थे मिरी तख़्लीक़ में
मैं तो बस अल्फ़ाज़ में था शाएरी में कौन था
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टैग : दर्शन
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हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
ख़ुद अपनी बात को कितना समझ रहे हैं हम
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उस को भी मेरी तरह अपनी वफ़ा पर था यक़ीं
वो भी शायद इसी धोके में मिला था मुझ को
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टैग : धूप
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हर घड़ी तेरा तसव्वुर हर नफ़स तेरा ख़याल
इस तरह तो और भी तेरी कमी बढ़ जाएगी
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हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
अब हौसला बढ़ाने को इफ़्तार भी तो हो
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हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
ये बार बार हमें क्यूँ बताना पड़ता है
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तू हमेशा माँगता रहता है क्यूँ ग़म से नजात
ग़म नहीं होंगे तो क्या तेरी ख़ुशी बढ़ जाएगी
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अब तो इतनी बार हम रस्ते में ठोकर खा चुके
अब तो हम को भी वो पत्थर देख लेना चाहिए
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इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी
इंतिज़ार था लेकिन दर खुला नहीं रक्खा
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मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
मुझे जो कुछ भी कहना है उसे शेरों में कहता हूँ
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ये सूरज कब निकलता है उन्हीं से पूछना होगा
सहर होने से पहले ही जो बिस्तर छोड़ देते हैं
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मैं अब जो हर किसी से अजनबी सा पेश आता हूँ
मुझे अपने से ये वाबस्तगी मजबूर करती है
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शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
मीलों मिरी तलाश में रस्ता निकल गया
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कुछ ख़बरों से इतनी वहशत होती है
हाथों से अख़बार उलझने लगते हैं
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इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
कब बुझ गए चराग़ हवा भी नहीं लगी
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हम वो सहरा के मुसाफ़िर हैं अभी तक जिन की
प्यास बुझती है सराबों की कहानी सुन कर
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आँखों में एक बार उभरने की देर थी
फिर आँसुओं ने आप ही रस्ते बना लिए
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ये सब तो दुनिया में होता रहता है
हम ख़ुद से बे-कार उलझने लगते हैं
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ये क्या कि रोज़ पहुँच जाता हूँ मैं घर अपने
अब अपनी जेब में अपना पता न रक्खा जाए
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उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
वो काफ़िर ही सही पक्का मगर ईमान रखता है
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मैं थोड़ी देर भी आँखों को अपनी बंद कर लूँ तो
अँधेरों में मुझे इक रौशनी महसूस होती है
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कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
पहन लेता हूँ जब दस्तार तो सर भूल जाता हूँ
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ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
तुम एक बार में ग़र्क़ाब क्यूँ नहीं होते
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उम्मीदों से पर्दा रक्खा ख़ुशियों से महरूम रहीं
ख़्वाब मरा तो चालिस दिन तक सोग मनाया आँखों ने
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दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
क्यूँ बार बार सूई से धागा निकल गया
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वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते
हम ने भी सच मान लिया जो कुछ दिखलाया आँखों ने
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सूरज से उस का नाम-ओ-नसब पूछता था मैं
उतरा नहीं है रात का नश्शा अभी तलक
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हम सराबों में हुए दाख़िल तो ये हम पर खुला
तिश्नगी सब में थी लेकिन तिश्नगी में कौन था
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मैं ने माना एक गुहर हूँ फिर भी सदफ़ में हूँ
मुझ को आख़िर यूँ ही घुट कर कब तक रहना है
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