Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

धूप पर शेर

शायरी की एक बड़ी ख़ूबी

ये है कि इसमें शब्दों का अपना अर्थ-शास्त्र होता है । कोई शब्द किसी एक और सामान्य अवधारणा को ही बयान नहीं करता । शायर की अपनी उड़ान होती है वो अपने तजरबे को पेश करने के लिए कभी किसी शब्द को रूपक बना देता है तो कभी अर्थ के विस्थापन में कामयाबी हासिल करता है । कह सकते हैं कि शायर अपने शब्दों के सहारे अपने विचारों को पेंट भी करता है और एक नए अर्थ-शास्त्र तक पहुँचता है । उर्दू शायरी में धूप और दोपहर जैसे शब्दों के सहारे भी नए अर्थ-शास्त्र की कल्पना की गई है ।

धूप ने गुज़ारिश की

एक बूँद बारिश की

मोहम्मद अल्वी

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए

वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

हसरत मोहानी

फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम

जब धूप में साया कोई सर पर मिलेगा

बशीर बद्र

जाती है धूप उजले परों को समेट के

ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के

शकेब जलाली

ये धूप तो हर रुख़ से परेशान करेगी

क्यूँ ढूँड रहे हो किसी दीवार का साया

अतहर नफ़ीस

मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में

क्यूँ तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया

अहमद मुश्ताक़

कोई तस्वीर मुकम्मल नहीं होने पाती

धूप देते हैं तो साया नहीं रहने देते

अहमद मुश्ताक़

वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया

लिपट रही है याद जिस्म से लिहाफ़ की तरह

मुसव्विर सब्ज़वारी

कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है

इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ

अख़्तर होशियारपुरी

हम फ़क़ीरों का पैरहन है धूप

और ये रात अपनी चादर है

आबिद वदूद

उस को भी मेरी तरह अपनी वफ़ा पर था यक़ीं

वो भी शायद इसी धोके में मिला था मुझ को

भारत भूषण पन्त

ये इंतिक़ाम है या एहतिजाज है क्या है

ये लोग धूप में क्यूँ हैं शजर के होते हुए

हसीब सोज़

तिरे आने का दिन है तेरे रस्ते में बिछाने को

चमकती धूप में साए इकट्ठे कर रहा हूँ मैं

अहमद मुश्ताक़

नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है

वो निकली धूप साया जा रहा है

माहिर-उल क़ादरी

'अल्वी' ये मो'जिज़ा है दिसम्बर की धूप का

सारे मकान शहर के धोए हुए से हैं

मोहम्मद अल्वी

जहाँ डाले थे उस ने धूप में कपड़े सुखाने को

टपकती हैं अभी तक रस्सियाँ आहिस्ता आहिस्ता

अहमद मुश्ताक़

ज़रा ये धूप ढल जाए तो उन का हाल पूछेंगे

यहाँ कुछ साए अपने आप को पैकर बताते हैं

ख़ुशबीर सिंह शाद

मिरे साए में उस का नक़्श-ए-पा है

बड़ा एहसान मुझ पर धूप का है

फ़हमी बदायूनी

कौन जाने कि उड़ती हुई धूप भी

किस तरफ़ कौन सी मंज़िलों में गई

किश्वर नाहीद

सारा दिन तपते सूरज की गर्मी में जलते रहे

ठंडी ठंडी हवा फिर चली सो रहो सो रहो

नासिर काज़मी

कुछ अब के धूप का ऐसा मिज़ाज बिगड़ा है

दरख़्त भी तो यहाँ साएबान माँगते हैं

मंज़ूर हाशमी

दीवार उन के घर की मिरी धूप ले गई

ये बात भूलने में ज़माना लगा मुझे

होश जौनपुरी

किस ने सहरा में मिरे वास्ते रक्खी है ये छाँव

धूप रोके है मिरा चाहने वाला कैसा

ज़ेब ग़ौरी

इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए

चमकी जो ज़रा धूप तो जलने लगे साए

हिमायत अली शाएर

धूप बोली कि मैं आबाई वतन हूँ तेरा

मैं ने फिर साया-ए-दीवार को ज़हमत नहीं दी

फ़रहत एहसास

अब शहर-ए-आरज़ू में वो रानाइयाँ कहाँ

हैं गुल-कदे निढाल बड़ी तेज़ धूप है

साग़र सिद्दीक़ी

नींद टूटी है तो एहसास-ए-ज़ियाँ भी जागा

धूप दीवार से आँगन में उतर आई है

सरशार सिद्दीक़ी

बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'

चारों जानिब वीरानी है दिल का इक वीराना क्या

अहमद ज़िया

धूप बढ़ते ही जुदा हो जाएगा

साया-ए-दीवार भी दीवार से

बहराम तारिक़

कमरे में के बैठ गई धूप मेज़ पर

बच्चों ने खिलखिला के मुझे भी जगा दिया

फ़ज़्ल ताबिश

शाख़ पर शब की लगे इस चाँद में है धूप जो

वो मिरी आँखों की है सो वो समर मेरा भी है

स्वप्निल तिवारी

वो और होंगे जो कार-ए-हवस पे ज़िंदा हैं

मैं उस की धूप से साया बदल के आया हूँ

अकबर मासूम

मैं बारिशों में बहुत भीगता रहा 'आबिद'

सुलगती धूप में इक छत बहुत ज़रूरी है

आबिद वदूद

दश्त-ए-वफ़ा में जल के रह जाएँ अपने दिल

वो धूप है कि रंग हैं काले पड़े हुए

होश तिर्मिज़ी

तारीकियों ने ख़ुद को मिलाया है धूप में

साया जो शाम का नज़र आया है धूप में

ताहिर फ़राज़

ज़ाविया धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम

साए को जिस्म की जुम्बिश से जुदा देखते हैं

आसिम वास्ती

पानी ने जिसे धूप की मिट्टी से बनाया

वो दाएरा-ए-रब्त बिगड़ने के लिए था

हनीफ़ तरीन

वो तपिश है कि जल उठे साए

धूप रक्खी थी साएबान में क्या

ख़ालिदा उज़्मा

उस ज़ाविए से देखिए आईना-ए-हयात

जिस ज़ाविए से मैं ने लगाया है धूप में

ताहिर फ़राज़

हमारे मुँह पे उस ने आइने से धूप तक फेंकी

अभी तक हम समझ कर उस को बच्चा छोड़ देते हैं

मोहम्मद आज़म

हम तिरे साए में कुछ देर ठहरते कैसे

हम को जब धूप से वहशत नहीं करनी आई

आबिदा करामत

धूप मुझ को जो लिए फिरती है साए साए

है तो आवारा मगर ज़ेहन में घर रखती है

ताहिर फ़राज़

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए