वहशत पर शेर
वहशत पर ये शायरी आप
के लिए आशिक़ की शख़्सियत के एक दिल-चस्प पहलू का हैरान-कुन बयान साबित होगी। आप देखेंगे कि आशिक़ जुनून और दीवानगी की आख़िरी हद पर पहुँच कर किया करता है। और किस तरह वो वहशत करने के लिए सहराओं में निकल पड़ता है।
पहले तमाम शहर को सहरा बनाएँगे
फिर वहशतों की रेत पे सोया करेंगे हम
जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है
कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है
हम तिरे साए में कुछ देर ठहरते कैसे
हम को जब धूप से वहशत नहीं करनी आई
ऐसे डरे हुए हैं ज़माने की चाल से
घर में भी पाँव रखते हैं हम तो सँभाल कर
दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो
कोई तो हो जो मिरी वहशतों का साथी हो
मेरे माथे पे उभर आते थे वहशत के नुक़ूश
मेरी मिट्टी किसी सहरा से उठाई गई थी
न हम वहशत में अपने घर से निकले
न सहरा अपनी वीरानी से निकला
इन दिनों अपनी भी वहशत का अजब आलम है
घर में हम दश्त-ओ-बयाबान उठा लाए हैं
वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा
सैकड़ों कोस नहीं सूरत-ए-इंसाँ पैदा
वो जो इक बात है जो तुझ को बताई न गई
वो जो इक राज़ है जो खुल न सका वहशत है
मुझे बचा ले मिरे यार सोज़-ए-इमशब से
कि इक सितारा-ए-वहशत जबीं से गुज़रेगा
जाने ये तू है तिरा ग़म है कि दिल की वहशत
जानिब-ए-कोह-ए-निदा कोई बुलाता है मुझे
बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'
चारों जानिब वीरानी है दिल का इक वीराना क्या
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही
वहशतें इश्क़ और मजबूरी
क्या किसी ख़ास इम्तिहान में हूँ
मजनूँ से ये कहना कि मिरे शहर में आ जाए
वहशत के लिए एक बयाबान अभी है
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र
ख़्वाब में नक़्ल-ए-मकानी की तरह होता है
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीअत कभी कभी
लोग कहते हैं कि तुम से ही मोहब्बत है मुझे
तुम जो कहते हो कि वहशत है तो वहशत होगी
वहशत का ये आलम कि पस-ए-चाक गरेबाँ
रंजिश है बहारों से उलझते हैं ख़िज़ाँ से
'शाद' इतनी बढ़ गई हैं मेरे दिल की वहशतें
अब जुनूँ में दश्त और घर एक जैसे हो गए
हो सके क्या अपनी वहशत का इलाज
मेरे कूचे में भी सहरा चाहिए
अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले
अंधेरे कमरे में रक़्स करती रहेगी वहशत
और एक कोने में पारसाई पड़ी रहेगी
फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है
बाहर कितना सन्नाटा है अंदर कितनी वहशत है
फ़स्ल-ए-गुल आते ही वहशत हो गई
फिर वही अपनी तबीअत हो गई
सौदा-ए-इश्क़ और है वहशत कुछ और शय
मजनूँ का कोई दोस्त फ़साना-निगार था
वो काम रह के करना पड़ा शहर में हमें
मजनूँ को जिस के वास्ते वीराना चाहिए
वाए क़िस्मत सबब इस का भी ये वहशत ठहरी
दर-ओ-दीवार में रह कर भी मैं बे-घर निकला
इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे
वस्ल का लपका नहीं है हिज्र से वहशत नहीं
इक दिन दुख की शिद्दत कम पड़ जाती है
कैसी भी हो वहशत कम पड़ जाती है
वो जो इक शर्त थी वहशत की उठा दी गई क्या
मेरी बस्ती किसी सहरा में बसा दी गई क्या
वो जिस के नाम की निस्बत से रौशनी था वजूद
खटक रहा है वही आफ़्ताब आँखों में
बचपन में हम ही थे या था और कोई
वहशत सी होने लगती है यादों से
ये खचा-खच भरी हुई वहशत
बे-बसों को बसों से ख़ौफ़ आया