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बेख़ुदी पर शेर

बे-ख़ुदी शुऊर की हालत

से निकल जाने की एक कैफ़ीयत है। एक आशिक़ बे-ख़ुदी को किस तरह जीता है और इस के ज़रीये वो इश्क़ के किन किन मुक़ामात की सैर करता है इस का दिल-चस्प बयान इन अशआर में है। इस तरह के शेरों की एक ख़ास जहत ये भी है कि इन के ज़रीये क्लासिकी आशिक़ की शख़्सियत की परतें खुलती हैं।

बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं

किस दिन बहार आई मैं दीवाना कब हुआ

असद अली ख़ान क़लक़

मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को

इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए

मिर्ज़ा ग़ालिब

पा-ब-गिल बे-ख़ुदी-ए-शौक़ से मैं रहता था

कूचा-ए-यार में हालत मिरी दीवार की थी

हैदर अली आतिश

अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर

तेरा ही इंतिज़ार किया है कभी कभी

नरेश कुमार शाद

अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया

ठुकराओ चाहे प्यार करो मैं नशे में हूँ

गणेश बिहारी तर्ज़

अल्लाह-रे बे-ख़ुदी कि चला जा रहा हूँ मैं

मंज़िल को देखता हुआ कुछ सोचता हुआ

मुईन अहसन जज़्बी

बे-ख़ुदी कूचा-ए-जानाँ में लिए जाती है

देखिए कौन मुझे मेरी ख़बर देता है

मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी

बे-ख़ुदी सलाम तुझे तेरा शुक्रिया

दुनिया भी मस्त मस्त है उक़्बा भी मस्त मस्त

जावेद सबा

बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को

देर से इंतिज़ार है अपना

मीर तक़ी मीर

किया है जब सीं अमल बे-ख़ुदी के हाकिम ने

ख़िरद-नगर की रईयत हुई है रू ब-गुरेज़

सिराज औरंगाबादी

ज़िंदगी जुनूँ सही बे-ख़ुदी सही

तू कुछ भी अपनी अक़्ल से पागल उठा तो ला

नातिक़ गुलावठी

मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन

बे-ख़ुदी बीच में दीवार हुआ चाहती है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

बे-ख़ुदी ने कर दिया जज़्बात-ए-दिल से बे-नियाज़

अब तिरा मिलना मिलना सब बराबर हो गया

नाज़ वाई

बे-ख़ुदी में हम तो तेरा दर समझ कर झुक गए

अब ख़ुदा मालूम काबा था कि वो बुत-ख़ाना था

तालिब जयपुरी

अब इन हुदूद में लाया है इंतिज़ार मुझे

वो भी जाएँ तो आए ए'तिबार मुझे

ख़ुमार बाराबंकवी

अच्छा ख़ासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ

अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ

अनवर शऊर

सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी

रू सू-ए-क़िबला वक़्त-ए-मुनाजात चाहिए

मिर्ज़ा ग़ालिब

इतनी पी है कि ब'अद-ए-तौबा भी

बे-पिए बे-ख़ुदी सी रहती है

रियाज़ ख़ैराबादी

यहाँ कोई जी सका जी सकेगा होश में

मिटा दे नाम होश का शराब ला शराब ला

मदन पाल

मय-ए-हयात में शामिल है तल्ख़ी-ए-दौराँ

जभी तो पी के तरसते हैं बे-ख़ुदी के लिए

ज़ेहरा निगाह

कमाल-ए-इश्क़ तो देखो वो गए लेकिन

वही है शौक़ वही इंतिज़ार बाक़ी है

जलील मानिकपूरी

इब्तिदा से आज तक 'नातिक़' की ये है सरगुज़िश्त

पहले चुप था फिर हुआ दीवाना अब बेहोश है

नातिक़ लखनवी

चले तो पाँव के नीचे कुचल गई कोई शय

नशे की झोंक में देखा नहीं कि दुनिया है

शहाब जाफ़री

जिस में हो याद भी तिरी शामिल

हाए उस बे-ख़ुदी को क्या कहिए

फ़िराक़ गोरखपुरी

पास-ए-आदाब-ए-वफ़ा था कि शिकस्ता-पाई

बे-ख़ुदी में भी हम हद से गुज़रने पाए

रज़ा हमदानी

अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे घर के आस-पास

हर दर पे दी सदा तिरे दर के ख़याल में

जगन्नाथ आज़ाद

हाँ कैफ़-ए-बे-ख़ुदी की वो साअत भी याद है

महसूस कर रहा था ख़ुदा हो गया हूँ मैं

हफ़ीज़ जालंधरी

इतनी पी जाए कि मिट जाए मैं और तू की तमीज़

यानी ये होश की दीवार गिरा दी जाए

फ़रहत शहज़ाद

उम्र जो बे-ख़ुदी में गुज़री है

बस वही आगही में गुज़री है

गुलज़ार देहलवी

जाँ-ब-लब लम्हा-ए-तस्कीं मिरी क़िस्मत है 'शमीम'

बे-ख़ुदी फिर मुझे दीवाना बनाती क्यूँ है

शख़ावत शमीम

कह दें तुम से कौन हैं क्या हैं कहाँ रहते हैं हम

बे-ख़ुदों को अपने जब तुम होश में आने तो दो

जलाल मानकपुरी

शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी

ख़िरद की बख़िया-गरी रही जुनूँ की पर्दा-दरी रही

सिराज औरंगाबादी

वो बे-ख़ुदी थी मोहब्बत की बे-रुख़ी तो थी

पे उस को तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ को इक बहाना हुआ

सलीम अहमद

दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी

'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए

अख़्तर शीरानी

कितना मुश्किल है ख़ुद-बख़ुद रोना

बे-ख़ुदी से रिहा करे कोई

असर अकबराबादी

कहाँ तक वाइज़ो ये झगड़े मज़े उठाने दो बे-ख़ुदी के

जो होश में हूँ तो मैं ये समझूँ हराम क्या है हलाल क्या है

जलील मानिकपूरी

आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं

साक़ी ने इस मक़ाम को आसाँ बना दिया

असग़र गोंडवी

ख़्वाब में नाम तिरा ले के पुकार उठता हूँ

बे-ख़ुदी में भी मुझे याद तिरी याद की है

लाला माधव राम जौहर

बे-ख़ुदी में ले लिया बोसा ख़ता कीजे मुआफ़

ये दिल-ए-बेताब की सारी ख़ता थी मैं था

मीरज़ा अबुल मुज़फ़्फर ज़फ़र

तो होश से तआरुफ़ जुनूँ से आश्नाई

ये कहाँ पहुँच गए हैं तिरी बज़्म से निकल के

ख़ुमार बाराबंकवी

मेरे दिल दिमाग़ पे छाए हुए हो तुम

ज़र्रे को आफ़्ताब बनाए हुए हो तुम

असर महबूब

गई बहार मगर अपनी बे-ख़ुदी है वही

समझ रहा हूँ कि अब तक बहार बाक़ी है

मुबारक अज़ीमाबादी

जुज़ बे-ख़ुदी गुज़र नहीं कू-ए-हबीब में

गुम हो गया जो मैं तो मिला रास्ता मुझे

जलील मानिकपूरी

यही तो कुफ़्र है यारान-ए-बे-ख़ुदी के हुज़ूर

जो कुफ़्र-ओ-दीं का मिरे यार इम्तियाज़ रहा

मिर्ज़ा अली लुत्फ़

ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ

तू के जा भी चुका है मैं इंतिज़ार में हूँ

मुनीर नियाज़ी

होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है

इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है

निदा फ़ाज़ली

छोड़ कर कूचा-ए-मय-ख़ाना तरफ़ मस्जिद के

मैं तो दीवाना नहीं हूँ जो चलूँ होश की राह

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

तेरे ख़याल में कभी इस तरह खो गए

तेरा ख़याल भी हमें अक्सर नहीं रहा

जमाल एहसानी

वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर

वो कहते ही रहे 'वासिफ़' ये महफ़िल है ये महफ़िल है

वासिफ़ देहलवी

बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'

कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है

मिर्ज़ा ग़ालिब

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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