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शराब पर शेर

अगर आपको बस यूँही बैठे

बैठे ज़रा सा झूमना है तो शराब शायरी पर हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए। आप महसूस करेंगे कि शराब की लज़्ज़त और इस के सरूर की ज़रा सी मिक़दार उस शायरी में भी उतर आई है। ये शायरी आपको मज़ा तो देगी ही, साथ में हैरान भी करेगी कि शराब जो ब-ज़ाहिर बे-ख़ुदी और सुरूर बख़्शती है, शायरी मैं किस तरह मानी की एक लामहदूद कायनात का इस्तिआरा बन गई है।

शब जो हम से हुआ मुआफ़ करो

नहीं पी थी बहक गए होंगे

जौन एलिया

सर-चश्मा-ए-बक़ा से हरगिज़ आब लाओ

हज़रत ख़िज़र कहीं से जा कर शराब लाओ

नज़ीर अकबराबादी

मिरे अश्क भी हैं इस में ये शराब उबल जाए

मिरा जाम छूने वाले तिरा हाथ जल जाए

अनवर मिर्ज़ापुरी

'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को मुँह लगा

छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर

मैं आज अपनी ज़ात से घबरा के पी गया

साग़र सिद्दीक़ी

बे-पिए शैख़ फ़रिश्ता था मगर

पी के इंसान हुआ जाता है

शकील बदायूनी

ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता

मैं कैसे बिन पिए ले लूँ ख़ुदा का नाम साक़ी

अब्दुल हमीद अदम

'अदम' रोज़-ए-अजल जब क़िस्मतें तक़्सीम होती थीं

मुक़द्दर की जगह मैं साग़र-ओ-मीना उठा लाया

अब्दुल हमीद अदम

हमारी कश्ती-ए-तौबा का ये हुआ अंजाम

बहार आते ही ग़र्क़-ए-शराब हो के रही

जलील मानिकपूरी

ज़ाहिद उमीद-ए-रहमत-ए-हक़ और हज्व-ए-मय

पहले शराब पी के गुनाह-गार भी तो हो

अमीर मीनाई

बजा कि है पास-ए-हश्र हम को करेंगे पास-ए-शबाब पहले

हिसाब होता रहेगा या रब हमें मँगा दे शराब पहले

अख़्तर शीरानी

तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो

तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है

मुनव्वर राना

खुली फ़ज़ा में अगर लड़खड़ा के चल सकें

तो ज़हर पीना है बेहतर शराब पीने से

शहज़ाद अहमद

मुश्किल है इमतियाज़-ए-अज़ाब-ओ-सवाब में

पीता हूँ मैं शराब मिला कर गुलाब में

अज़ीज़ हैदराबादी

बे पिए ही शराब से नफ़रत

ये जहालत नहीं तो फिर क्या है

अज्ञात

शराब बंद हो साक़ी के बस की बात नहीं

तमाम शहर है दो चार दस की बात नहीं

असद मुल्तानी

जिस मुसल्ले पे छिड़किए शराब

अपने आईन में वो पाक नहीं

क़ाएम चाँदपुरी

कब पिलावेगा तू साक़ी मुझे जाम-ए-शराब

जाँ-ब-लब हूँ आरज़ू में मय की पैमाने की तरह

ताबाँ अब्दुल हई

तकिया हटता नहीं पहलू से ये क्या है 'बेख़ुद'

कोई बोतल तो नहीं तुम ने छुपा रक्खी है

बेख़ुद देहलवी

किधर से बर्क़ चमकती है देखें वाइज़

मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा

जिगर मुरादाबादी

पूछिए मय-कशों से लुत्फ़-ए-शराब

ये मज़ा पाक-बाज़ क्या जानें

दाग़ देहलवी

शीशे खुले नहीं अभी साग़र चले नहीं

उड़ने लगी परी की तरह बू शराब की

अज़ीज़ हैदराबादी

ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर

या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा हो

अज्ञात

तिरा शबाब रहे हम रहें शराब रहे

ये दौर ऐश का ता दौर-ए-आफ़्ताब रहे

जलील मानिकपूरी

मानें जो मेरी बात मुरीदान-ए-बे-रिया

दें शैख़ को कफ़न तो डुबो कर शराब में

मिर्ज़ा मायल देहलवी

पीता हूँ जितनी उतनी ही बढ़ती है तिश्नगी

साक़ी ने जैसे प्यास मिला दी शराब में

अज्ञात

शिकन डाल जबीं पर शराब देते हुए

ये मुस्कुराती हुई चीज़ मुस्कुरा के पिला

व्याख्या

जबीं अर्थात माथा। जबीं पर शिकन डालने के कई मायने हैं। जैसे ग़ुस्सा करना, किसी से रूठ जाना आदि। शायर मदिरापान कराने वाले अर्थात अपने महबूब को सम्बोधित करते हुए कहता है कि शराब एक मुस्कुराती हुई चीज़ है और उसे किसी को देते हुए माथे पर बल डालना अच्छी बात नहीं क्योंकि अगर साक़ी माथे पर बल डालकर किसी को शराब पिलाता है तो फिर उस मदिरा का असली मज़ा जाता रहता है। इसलिए मदिरापान कराने वाले पर अनिवार्य है कि वो मदिरापान के नियमों को ध्यान में रखते हुए पीने वाले को शराब मुस्कुरा कर पिलाए।

शफ़क़ सुपुरी

अब्दुल हमीद अदम

ख़ाली सही बला से तसल्ली तो दिल को हो

रहने दो सामने मिरे साग़र शराब का

मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम

दर्द-ए-सर है ख़ुमार से मुझ को

जल्द ले कर शराब साक़ी

ताबाँ अब्दुल हई

मुझे तौबा का पूरा अज्र मिलता है उसी साअत

कोई ज़ोहरा-जबीं पीने पे जब मजबूर करता है

अब्दुल हमीद अदम

वाइज़ की आँखें खुल गईं पीते ही साक़िया

ये जाम-ए-मय था या कोई दरिया-ए-नूर था

यगाना चंगेज़ी

अज़ाँ हो रही है पिला जल्द साक़ी

इबादत करें आज मख़मूर हो कर

अज्ञात

मुँह में वाइज़ के भी भर आता है पानी अक्सर

जब कभी तज़्किरा-ए-जाम-ए-शराब आता है

बेख़ुद देहलवी

जनाब-ए-शैख़ को सूझे फिर हराम हलाल

अभी पिएँ जो मिले मुफ़्त की शराब कहीं

लाला माधव राम जौहर

मुझ तक उस महफ़िल में फिर जाम-ए-शराब आने को है

उम्र-ए-रफ़्ता पलटी आती है शबाब आने को है

फ़ानी बदायुनी

वो मिले भी तो इक झिझक सी रही

काश थोड़ी सी हम पिए होते

अब्दुल हमीद अदम

सब को मारा 'जिगर' के शेरों ने

और 'जिगर' को शराब ने मारा

जिगर मुरादाबादी

वाइज़ मय-ए-तुहूर जो पीना है ख़ुल्द में

आदत अभी से डाल रहा हूँ शराब की

जलील मानिकपूरी

हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू

बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर

मिर्ज़ा ग़ालिब

किसी तरह तो घटे दिल की बे-क़रारी भी

चलो वो चश्म नहीं कम से कम शराब तो हो

आफ़ताब हुसैन

कुछ भी बचा कहने को हर बात हो गई

आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई

निदा फ़ाज़ली

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो

नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

अहमद फ़राज़

साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद

मुझ को तिरी निगाह का इल्ज़ाम चाहिए

अब्दुल हमीद अदम

साक़ी मुझे ख़ुमार सताए है ला शराब

मरता हूँ तिश्नगी से ज़ालिम पिला शराब

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

ता-मर्ग मुझ से तर्क होगी कभी नमाज़

पर नश्शा-ए-शराब ने मजबूर कर दिया

आग़ा अकबराबादी

पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब

इस बलग़मी-मिज़ाज को गर्मी ही रास है

मिर्ज़ा ग़ालिब

वाइज़ तुम पियो किसी को पिला सको

क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तुहूर की

मिर्ज़ा ग़ालिब

उठा सुराही ये शीशा वो जाम ले साक़ी

फिर इस के बाद ख़ुदा का भी नाम ले साक़ी

कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर

फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल पूछिए 'मजरूह'

शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने

मजरूह सुल्तानपुरी

किस की होली जश्न-ए-नौ-रोज़ी है आज

सुर्ख़ मय से साक़िया दस्तार रंग

इमाम बख़्श नासिख़
बोलिए