महशर इनायती
ग़ज़ल 21
अशआर 14
क़सम जब उस ने खाई हम ने ए'तिबार कर लिया
ज़रा सी देर ज़िंदगी को ख़ुश-गवार कर लिया
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लब पे इक नाम हमेशा की तरह
और क्या काम हमेशा की तरह
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सुनते थे 'महशर' कभी पत्थर भी हो जाता है मोम
आज वो आए तो पलकों को भिगोना पड़ गया
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हर एक बात ज़बाँ से कही नहीं जाती
जो चुपके बैठे हैं कुछ उन की बात भी समझो
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