महशर इनायती
ग़ज़ल 21
अशआर 14
चले भी आओ मिरे जीते-जी अब इतना भी
न इंतिज़ार बढ़ाओ कि नींद आ जाए
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किसी की बज़्म के हालात ने समझा दिया मुझ को
कि जब साक़ी नहीं अपना तो मय अपनी न जाम अपना
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हर एक बात ज़बाँ से कही नहीं जाती
जो चुपके बैठे हैं कुछ उन की बात भी समझो
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बड़ी तवील है 'महशर' किसी के हिज्र की बात
कोई ग़ज़ल ही सुनाओ कि नींद आ जाए
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