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साग़र सिद्दीक़ी

1928 - 1974 | लाहौर, पाकिस्तान

साग़र सिद्दीक़ी

ग़ज़ल 43

अशआर 44

काँटे तो ख़ैर काँटे हैं इस का गिला ही क्या

फूलों की वारदात से घबरा के पी गया

ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं

लोग अब ज़िंदगी के मुजरिम हैं

जब जाम दिया था साक़ी ने जब दौर चला था महफ़िल में

इक होश की साअत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर

मैं आज अपनी ज़ात से घबरा के पी गया

मौत कहते हैं जिस को 'साग़र'

ज़िंदगी की कोई कड़ी होगी

क़ितआ 22

नअत 1

 

पुस्तकें 7

 

वीडियो 9

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मसूद तन्हा

चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है

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मसूद तन्हा

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चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है

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मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया

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ऑडियो 10

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