शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल 96
नज़्म 19
अशआर 196
छोड़ने मैं नहीं जाता उसे दरवाज़े तक
लौट आता हूँ कि अब कौन उसे जाता देखे
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ये समझ के माना है सच तुम्हारी बातों को
इतने ख़ूब-सूरत लब झूट कैसे बोलेंगे
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गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने
घड़ी पर रख दिया था हाथ मैं ने
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हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया
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- ग़ज़ल देखिए
हौसला है तो सफ़ीनों के अलम लहराओ
बहते दरिया तो चलेंगे इसी रफ़्तार के साथ
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