सलीम अहमद
ग़ज़ल 64
नज़्म 22
अशआर 70
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
कि जो भी लफ़्ज़ था वो दिल दुखाने वाला था
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घास में जज़्ब हुए होंगे ज़मीं के आँसू
पाँव रखता हूँ तो हल्की सी नमी लगती है
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सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को
बात जो दिल से निकलती है बुरी लगती है
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दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
घर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना
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निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे
ये शहर आब को तरसेगा चश्म-ए-तर के बग़ैर
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