इंतिज़ार पर शेर
इंतिज़ार ख़ास अर्थों में
दर्दनाक होता है । इसलिए इस को तकलीफ़-देह कैफ़ियत का नाम दिया गया है । जीवन के आम तजरबात से अलग इंतिज़ार उर्दू शाइरी के आशिक़ का मुक़द्दर है । आशिक़ जहाँ अपने महबूब के इंतिज़ार में दोहरा हुआ जाता है वहीं उस का महबूब संग-दिल ज़ालिम, ख़ुद-ग़रज़, बे-वफ़ा, वादा-ख़िलाफ़ और धोके-बाज़ होता है । इश्क़ और प्रेम के इस तय-शुदा परिदृश्य ने उर्दू शाइरी में नए-नए रूपकों का इज़ाफ़ा किया है और इंतिज़ार के दुख को अनन्त-दुख में ढाल दिया है । यहाँ प्रस्तुत संकलन को पढ़िए और इंतिज़ार की अलग-अलग कैफ़ियतों को महसूस कीजिए ।
इक रात वो गया था जहाँ बात रोक के
अब तक रुका हुआ हूँ वहीं रात रोक के
मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा
ये हादसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा
शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
तेरा ही इंतिज़ार किया है कभी कभी
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वादा नहीं पयाम नहीं गुफ़्तुगू नहीं
हैरत है ऐ ख़ुदा मुझे क्यूँ इंतिज़ार है
जिसे न आने की क़स्में मैं दे के आया हूँ
उसी के क़दमों की आहट का इंतिज़ार भी है
ख़त्म हो जाएगा जिस दिन भी तुम्हारा इंतिज़ार
घर के दरवाज़े पे दस्तक चीख़ती रह जाएगी
जानता है कि वो न आएँगे
फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल
खुला है दर प तिरा इंतिज़ार जाता रहा
ख़ुलूस तो है मगर ए'तिबार जाता रहा
वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे
शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने
दरवाज़ा खुला है कि कोई लौट न जाए
और उस के लिए जो कभी आया न गया हो
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बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इंतिज़ार है अपना
दिन गुज़रते जा रहे हैं और हुजूम-ए-ख़ुश-गुमाँ
मुंतज़िर बैठा है आब ओ ख़ाक से बिछड़ा हुआ
न इंतिज़ार करो इन का ऐ अज़ा-दारो
शहीद जाते हैं जन्नत को घर नहीं आते
बारहा तेरा इंतिज़ार किया
अपने ख़्वाबों में इक दुल्हन की तरह
इतना मैं इंतिज़ार किया उस की राह में
जो रफ़्ता रफ़्ता दिल मिरा बीमार हो गया
तुझे गले से लगा के भी देखा जाएगा
अभी तो मुझ को तिरा इंतिज़ार करना है
फ़ज़ा-ए-दिल पे कहीं छा न जाए यास का रंग
कहाँ हो तुम कि बदलने लगा है घास का रंग
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
अब मेरा इंतिज़ार करो मैं नशे में हूँ
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर
कटते किसी तरह से नहीं हाए क्या करूँ
दिन हो गए पहाड़ मुझे इंतिज़ार के
उन के आने के बाद भी 'जालिब'
देर तक उन का इंतिज़ार रहा
फ़क़त आँखें चराग़ों की तरह से जल रही हैं
किसी की दस्तरस में है कहाँ कोई सितारा
कहीं वो आ के मिटा दें न इंतिज़ार का लुत्फ़
कहीं क़ुबूल न हो जाए इल्तिजा मेरी
कभी इस राह से गुज़रे वो शायद
गली के मोड़ पर तन्हा खड़ा हूँ
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
अब इन हुदूद में लाया है इंतिज़ार मुझे
वो आ भी जाएँ तो आए न ए'तिबार मुझे
ये इंतिज़ार न ठहरा कोई बला ठहरी
किसी की जान गई आप की अदा ठहरी
इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
आ कहीं जल्दी से साक़ी शीशा ओ साग़र समेत
है किस का इंतिज़ार कि ख़्वाब-ए-अदम से भी
हर बार चौंक पड़ते हैं आवाज़-ए-पा के साथ
कोई आया न आएगा लेकिन
क्या करें गर न इंतिज़ार करें
यूँ रात गए किस को सदा देते हैं अक्सर
वो कौन हमारा था जो वापस नहीं आया
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
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मौत का इंतिज़ार बाक़ी है
आप का इंतिज़ार था न रहा
ये इंतिज़ार की घड़ियाँ ये शब का सन्नाटा
इस एक शब में भरे हैं हज़ार साल के दिन
मुद्दत हुई पलक से पलक आश्ना नहीं
क्या इस से अब ज़ियादा करे इंतिज़ार चश्म
अब ख़ाक उड़ रही है यहाँ इंतिज़ार की
ऐ दिल ये बाम-ओ-दर किसी जान-ए-जहाँ के थे
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
इस इंतिज़ार में किस किस से प्यार हम ने किया
इसी ख़याल में हर शाम-ए-इंतिज़ार कटी
वो आ रहे हैं वो आए वो आए जाते हैं
आह क़ासिद तो अब तलक न फिरा
दिल धड़कता है क्या हुआ होगा
सदियों तक एहतिमाम-ए-शब-ए-हिज्र में रहे
सदियों से इंतिज़ार-ए-सहर कर रहे हैं हम
तमाम उम्र यूँ ही हो गई बसर अपनी
शब-ए-फ़िराक़ गई रोज़-ए-इंतिज़ार आया
गुज़र ही जाएँगे तेरे फ़िराक़ के मौसम
हर इंतिज़ार के आगे भी हैं मक़ाम कई
कभी तो दैर-ओ-हरम से तू आएगा वापस
मैं मय-कदे में तिरा इंतिज़ार कर लूँगा
कमाल-ए-इश्क़ तो देखो वो आ गए लेकिन
वही है शौक़ वही इंतिज़ार बाक़ी है
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे