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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

स्वागत पर शेर

दुनिया हो या ज़िन्दगी

दोनों आने वालों से आबाद है। हम उनका इस्तक़बाल, उनका स्वागत करने के लिए लफ़्ज़ ढूंढते रहते हैं लेकिन शायरों ने ऐसे लम्हों और ऐसे लोगों का इस्तक़बाल पूरी गर्मजोशी और ख़ूबसूरती से किया है। इस्तक़बाल शायरी में ऐसी कई मिसालें मौजूद हैं जो आपको मेहमान लम्हों को लफ़्ज़ों में क़ैद करने का सलीक़ा सीखने में मददगार साबित हो सकती हैं।

ये ज़ुल्फ़-बर-दोश कौन आया ये किस की आहट से गुल खिले हैं

महक रही है फ़ज़ा-ए-हस्ती तमाम आलम बहार सा है

साग़र सिद्दीक़ी

तुम गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों

ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

वसीम बरेलवी

रौनक़-ए-बज़्म नहीं था कोई तुझ से पहले

रौनक़-ए-बज़्म तिरे बा'द नहीं है कोई

सरफ़राज़ ख़ालिद

सुना था हम ने कि रहे हो तुम अपने घर से निकल पड़े हो

तुम्हारे आने से पहले पहले ही रास्ते को सजा दिया है

अलमास शबी

चाँद भी हैरान दरिया भी परेशानी में है

अक्स किस का है कि इतनी रौशनी पानी में है

फ़रहत एहसास

आमद पे तेरी इत्र चराग़ सुबू हों

इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया

परवीन शाकिर

सेहन-ए-चमन को अपनी बहारों पे नाज़ था

वो गए तो सारी बहारों पे छा गए

जिगर मुरादाबादी

अभी तो उस का कोई तज़्किरा हुआ भी नहीं

अभी से बज़्म में ख़ुशबू का रक़्स जारी है

अफ़ज़ल इलाहाबादी

तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है

तुम्हारे बा'द ये मौसम बहुत सताएगा

बशीर बद्र

फूल गुल शम्स क़मर सारे ही थे

पर हमें उन में तुम्हीं भाए बहुत

मीर तक़ी मीर

फ़ज़ा-ए-दिल पे कहीं छा जाए यास का रंग

कहाँ हो तुम कि बदलने लगा है घास का रंग

अहमद मुश्ताक़

बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम

तुम आओगे तो जश्न-ए-चराग़ाँ करेंगे हम

वासिफ़ देहलवी

तिरे आने का दिन है तेरे रस्ते में बिछाने को

चमकती धूप में साए इकट्ठे कर रहा हूँ मैं

अहमद मुश्ताक़

हम ने ब-सद ख़ुलूस पुकारा है आप को

अब देखना है कितनी कशिश है ख़ुलूस में

अज्ञात

दाग़ इक आदमी है गर्मा-गर्म

ख़ुश बहुत होंगे जब मिलेंगे आप

दाग़ देहलवी

आप अगर यूँही चराग़ों को जलाते हुए आएँ

हम भी हर शाम नई बज़्म सजाते हुए आएँ

अज्ञात

आया ये कौन साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में

पेशानी-ए-सहर का उजाला लिए हुए

जमील मज़हरी

ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है

बिछाया है क़मर ने चाँदनी का फ़र्श महफ़िल में

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

तुम गए हो तो अब आईना भी देखेंगे

अभी अभी तो निगाहों में रौशनी हुई है

इरफ़ान सत्तार

ये इंतिज़ार की घड़ियाँ ये शब का सन्नाटा

इस एक शब में भरे हैं हज़ार साल के दिन

क़मर सिद्दीक़ी

आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत

कहिए जलती रहे या शम्अ बुझा दी जाए

सबा अकबराबादी

भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर मजमा-ए-ख़ूबी

मुलाक़ाती तिरा गोया भरी महफ़िल से मिलता है

दाग़ देहलवी

ये और बात कि रस्ते भी हो गए रौशन

दिए तो हम ने तिरे वास्ते जलाए थे

निसार राही

कौन हो सकता है आने वाला

एक आवाज़ सी आई थी अभी

कर्रार नूरी

देर लगी आने में तुम को शुक्र है फिर भी आए तो

आस ने दिल का साथ छोड़ा वैसे हम घबराए तो

अंदलीब शादानी

तुम जो आए हो तो शक्ल-ए-दर-ओ-दीवार है और

कितनी रंगीन मिरी शाम हुई जाती है

निहाल सेवहारवी

ख़ुश-आमदीद वो आया हमारी चौखट पर

बहार जिस के क़दम का तवाफ़ करती है

अज्ञात

इतने दिन के बाद तू आया है आज

सोचता हूँ किस तरह तुझ से मिलूँ

अतहर नफ़ीस

जिस बज़्म में साग़र हो सहबा हो ख़ुम हो

रिंदों को तसल्ली है कि उस बज़्म में तुम हो

अज्ञात

हर गली अच्छी लगी हर एक घर अच्छा लगा

वो जो आया शहर में तो शहर भर अच्छा लगा

अज्ञात

बजाए सीने के आँखों में दिल धड़कता है

ये इंतिज़ार के लम्हे अजीब होते हैं

शाहज़ादा गुलरेज़

सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी

तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी

जाँ निसार अख़्तर

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

व्याख्या

इस शे’र का मिज़ाज ग़ज़ल के पारंपरिक स्वभाव के समान है। चूँकि फ़ैज़ ने प्रगतिशील विचारों के प्रतिनिधित्व में भी उर्दू छंदशास्त्र की परंपरा का पूरा ध्यान रखा इसलिए उनकी रचनाओं में प्रतीकात्मक स्तर पर प्रगतिवादी सोच दिखाई देती है इसलिए उनकी शे’री दुनिया में और भी संभावनाएं मौजूद हैं। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ये मशहूर शे’र है। बाद-ए-नौ-बहार के मायने नई बहार की हवा है। पहले इस शे’र की व्याख्या प्रगतिशील विचार को ध्यान मे रखते हुए करते हैं। फ़ैज़ की शिकायत ये रही है कि क्रांति होने के बावजूद शोषण की चक्की में पिसने वालों की क़िस्मत नहीं बदलती। इस शे’र में अगर बाद-ए-नौबहार को क्रांति का प्रतीक मान लिया जाये तो शे’र का अर्थ ये बनता है कि गुलशन (देश, समय आदि) का कारोबार तब तक नहीं चल सकता जब तक कि क्रांति अपने सही मायने में नहीं आती। इसीलिए वो क्रांति या परिवर्तन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जब तुम प्रगट हो जाओगे तब फूलों में नई बहार की हवा ताज़गी लाएगी। और इस तरह से चमन का कारोबार चलेगा। दूसरे शब्दों में वो अपने महबूब से कहते हैं कि तुम अब भी जाओ ताकि गुलों में नई बहार की हवा रंग भरे और चमन खिल उठे।

शफ़क़ सुपुरी

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सुनता हूँ मैं कि आज वो तशरीफ़ लाएँगे

अल्लाह सच करे कहीं झूटी ख़बर हो

लाला माधव राम जौहर

यूँही हर शाम अगर आप को हम याद रहें

सोहबतें गर्म रहें महफ़िलें आबाद रहें

अज्ञात

निगाह-ए-शौक़ की हैरानियों को क्या कहिए

उन्हें बुला भी लिया ए'तिबार भी किया

अज्ञात

मैं ने आवाज़ तुम्हें दी है बड़े नाज़ के साथ

तुम भी आवाज़ मिला दो मिरी आवाज़ के साथ

अज्ञात

तुम गए हो ख़ुदा का सुबूत है ये भी

क़सम ख़ुदा की अभी मैं ने तुम को सोचा था

क़ैसर-उल जाफ़री

रक़्स-ए-मय तेज़ करो साज़ की लय तेज़ करो

सू-ए-मय-ख़ाना सफ़ीरान-ए-हरम आते हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तुम गए तो चमकने लगी हैं दीवारें

अभी अभी तो यहाँ पर बड़ा अँधेरा था

अनवर मसूद

आप आए तो बहारों ने लुटाई ख़ुश्बू

फूल तो फूल थे काँटों से भी आई ख़ुश्बू

अज्ञात

मुंतज़िर चश्म भी है क़ल्ब भी है जान भी है

आप के आने की हसरत भी है अरमान भी है

अज्ञात

हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद

आज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा

अहमद फ़राज़

मुद्दतों बा'द कभी नज़र आने वाले

ईद का चाँद देखा तिरी सूरत देखी

मंज़र लखनवी

महफ़िल में चार चाँद लगाने के बावजूद

जब तक आप आए उजाला हो सका

अज्ञात

फ़रेब-ए-जल्वा कहाँ तक ब-रू-ए-कार रहे

नक़ाब उठाओ कि कुछ दिन ज़रा बहार रहे

अख़्तर अली अख़्तर

मिल कर तपाक से हमें कीजिए उदास

ख़ातिर कीजिए कभी हम भी यहाँ के थे

जौन एलिया

साक़ी शराब जाम-ओ-सुबू मुतरिब बहार

सब गए बस आप के आने की देर है

अज्ञात

ख़ुदा के वास्ते मोहर-ए-सुकूत तोड़ भी दे

तमाम शहर तिरी गुफ़्तुगू का प्यासा है

हयात लखनवी

हमारी ज़िंदगी-ओ-मौत की हो तुम रौनक़

चराग़-ए-बज़्म भी हो और चराग़-ए-फ़न भी हो

रशीद लखनवी
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