रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए
वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएगाँ तो है
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
मोहब्बत अब नहीं होगी ये कुछ दिन ब'अद में होगी
गुज़र जाएँगे जब ये दिन ये उन की याद में होगी
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार
इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस किस से
मोहब्बत कर के देखो ना मोहब्बत क्यूँ नहीं करते
मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर
ये सोच ले कि मैं भी तिरी ख़्वाहिशों में हूँ
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं
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टैग : धन्यवाद ज्ञापन
मुझ को अक्सर उदास करती है
एक तस्वीर मुस्कुराती हुई
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
मैं हमेशा तो मोहब्बत में नहीं रह सकता
मैं अब हर शख़्स से उक्ता चुका हूँ
फ़क़त कुछ दोस्त हैं और दोस्त भी क्या
तुम आए हो न शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार बार गुज़री है
व्याख्या
इस शे’र को प्रायः टीकाकारों और आलोचकों ने प्रगतिशील विचारों की दृष्टि से देखा है। उनकी नज़र में “तुम”, “इन्क़िलाब”, “शब-ए-इंतज़ार” द्विधा, शोषण और अन्वेषण का प्रतीक है। इस दृष्टि से शे’र का विषय ये बनता है कि क्रांति करने का प्रयत्न करने वालों ने शोषक तत्वों के विरुद्ध हालांकि बहुत कोशिशें की मगर हर दौर अपने साथ नए शोषक तत्व लाता है। चूँकि फ़ैज़ ने अपनी शायरी में उर्दू शायरी की परंपरा से बग़ावत नहीं की और पारंपरिक विधानों को ही बरता है इसलिए इस शे’र को अगर प्रगतिशील सोच के दायरे से निकाल कर भी देखा जाये तो इसमें एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि न तुम आए और न इंतज़ार की रात गुज़री। हालांकि नियम ये है कि हर रात की सुबह होती है मगर सुबह के बार-बार आने के बावजूद इंतज़ार की रात ख़त्म नहीं होती।
शफ़क़ सुपुरी
इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई
ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा
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टैग : मीर तक़ी मीर
हम हैं असीर-ए-ज़ब्त इजाज़त नहीं हमें
रो पा रहे हैं आप बधाई है रोइए
लाया है मिरा शौक़ मुझे पर्दे से बाहर
मैं वर्ना वही ख़ल्वती-ए-राज़-ए-निहाँ हूँ
हम तिरा हिज्र मनाने के लिए निकले हैं
शहर में आग लगाने के लिए निकले हैं
वो अब भी दिल दुखा देता है मेरा
वो मेरा दोस्त है दुश्मन नहीं है
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया
आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो
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टैग : मीर तक़ी मीर
हालत-ए-हाल से बेगाना बना रक्खा है
ख़ुद को माज़ी का निहाँ-ख़ाना बना रक्खा है
बस मोहब्बत बस मोहब्बत बस मोहब्बत जान-ए-मन
बाक़ी सब जज़्बात का इज़हार कम कर दीजिए
सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं
रक्खी हुई है दोनों की बुनियाद रेत पर
सहरा-ए-बे-कराँ को समुंदर लिखेंगे हम
पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
नाव पर काग़ज़ की फिर मुझ को सवार उस ने किया
जाने क्या कुछ हो छुपा तुम में मोहब्बत के सिवा
हम तसल्ली के लिए फिर से खगालेंगे तुम्हें
मेरी कोशिश तो यही है कि ये मासूम रहे
और दिल है कि समझदार हुआ जाता है