इंतिज़ार पर चित्र/छाया शायरी

इंतिज़ार ख़ास अर्थों में

दर्दनाक होता है । इसलिए इस को तकलीफ़-देह कैफ़ियत का नाम दिया गया है । जीवन के आम तजरबात से अलग इंतिज़ार उर्दू शाइरी के आशिक़ का मुक़द्दर है । आशिक़ जहाँ अपने महबूब के इंतिज़ार में दोहरा हुआ जाता है वहीं उस का महबूब संग-दिल ज़ालिम, ख़ुद-ग़रज़, बे-वफ़ा, वादा-ख़िलाफ़ और धोके-बाज़ होता है । इश्क़ और प्रेम के इस तय-शुदा परिदृश्य ने उर्दू शाइरी में नए-नए रूपकों का इज़ाफ़ा किया है और इंतिज़ार के दुख को अनन्त-दुख में ढाल दिया है । यहाँ प्रस्तुत संकलन को पढ़िए और इंतिज़ार की अलग-अलग कैफ़ियतों को महसूस कीजिए ।

कभी तो दैर-ओ-हरम से तू आएगा वापस

उन के आने के बाद भी 'जालिब'

अब इन हुदूद में लाया है इंतिज़ार मुझे

वो चाँद कह के गया था कि आज निकलेगा

वो चाँद कह के गया था कि आज निकलेगा

शब-ए-इंतिज़ार में कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई

कहीं वो आ के मिटा दें न इंतिज़ार का लुत्फ़

बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को

ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो

आहटें सुन रहा हूँ यादों की

आहटें सुन रहा हूँ यादों की

एक रात वो गया था जहाँ बात रोक के

एक रात वो गया था जहाँ बात रोक के

आने में सदा देर लगाते ही रहे तुम

तेरे आने की क्या उमीद मगर

है ख़ुशी इंतिज़ार की हर दम

वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे

वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे

आने में सदा देर लगाते ही रहे तुम

एक रात वो गया था जहाँ बात रोक के

एक रात वो गया था जहाँ बात रोक के

कहीं वो आ के मिटा दें न इंतिज़ार का लुत्फ़

इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में

इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में

जानता है कि वो न आएँगे

शब-ए-इंतिज़ार में कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई

एक रात वो गया था जहाँ बात रोक के

एक रात वो गया था जहाँ बात रोक के

कहीं वो आ के मिटा दें न इंतिज़ार का लुत्फ़

न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद

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