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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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मुबारक शमीम

ग़ज़ल 14

अशआर 12

उस को धुँदला सकेगा कभी लम्हों का ग़ुबार

मेरी हस्ती का वरक़ यूँही खुला रहने दे

क्या तमाशा है कि अब हर शख़्स को ये वहम है

सब से मैं ऊँचा हूँ मुझ से कोई भी ऊँचा नहीं

नज़र आती नहीं हैं कम-नज़र को

सराबों के जिगर में नद्दियाँ हैं

बोल किस मोड़ पे हूँ कश्मकश-ए-मर्ग-ओ-हयात

ऐसे आलम में कहाँ छोड़ दिया है मुझ को

हर इक पत्थर को हीरा क्यों समझ लें

हर इक पत्थर अगरचे दीदनी है

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