हसन नईम
ग़ज़ल 55
नज़्म 5
अशआर 28
कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुक़द्दस ख़्वाब थे
हर ज़माने में शहादत के यही अस्बाब थे
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ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ
मैं तो ग़म से ही बे-मिसाल हुआ
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इतना रोया हूँ ग़म-ए-दोस्त ज़रा सा हँस कर
मुस्कुराते हुए लम्हात से जी डरता है
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ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
वस्ल की शब न सही हिज्र का हंगाम तो है
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