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इमदाद अली बहर

1810 - 1878 | लखनऊ, भारत

नुमायाँ शाइर और विद्वान, इमाम बख़्श नासिख़ के शागिर्द

नुमायाँ शाइर और विद्वान, इमाम बख़्श नासिख़ के शागिर्द

इमदाद अली बहर के शेर

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देखिए तर्क-ए-अदब की क्या मिली ता'ज़ीर कल

पीठ है सू-ए-हरम मुँह है सू-ए-बुत-ख़ाना आज

रिआ'यत चाहिए ऐसी कि ज़ेबाई हो मा'नी की

उरूस-ए-शेर का 'बहर' ज़ेवर हो तो ऐसा हो

आए भी तो खाए गिलौरी मला इत्र

रोकी मिरी दावत मुझे मेहमाँ से गिला है

तकिया अगर नसीब हो ज़ानू-ए-यार का

मैं ऐसी नींद सोऊँ कि साबित हो मर गया

क्या है मुझे देते हो गिलौरी

चूने में कहीं संख्या हो

वो कूचा शेर-ओ-सुख़न का है तंग-ओ-तार 'बहर'

कि सूझते नहीं मा'नी बड़े ज़हीनों को

मिरे क़त्ल पर तुम ने बीड़ा उठाया

मिरे हाथ का पान खाया तो होता

आशिक़ से नाक-भौं चढ़ा किताब-रू

हम दर्स-ए-इश्क़ में ये अलिफ़ भी पढ़े नहीं

नहीं जी चाहता मिलने को सुबुक-वज़ओं से

क्या करें हम जो मिज़ाज अपना गिरानी माँगे

ज़ालिम हमारी आज की ये बात याद रख

इतना भी दिल-जलों का सताना भला नहीं

मुख़्तार हैं वो लिक्खें लिक्खें जवाब-ए-ख़त

साहब को रोज़ अपना अरीज़ा रिपोर्ट है

यार को देखते ही मर गए 'बहर' अफ़्सोस

ख़ाक मेरी कोई आँखों में क़ज़ा की झोंके

मिरे बग़ैर इक-दम उसे क़रार आता

ज़रा भी ज़ब्त जो मुझ बे-क़रार में होता

दिखाया उस ने बन-ठन कर वो जल्वा अपनी सूरत का

कि पानी फिर गया आईने पर दरिया-ए-हैरत का

चोटी गुंध्वाई हुई यार ने खुलवा डाली

रहम आया कोई महबूस-ए-रसन याद आया

ज़ाहिद सुनाऊँ वस्फ़ जो अपनी शराब के

पढ़ने लगें दरूद फ़रिश्ते सवाब के

रोना बिना-ए-ख़ाना-ख़राबी है मिस्ल-ए-शम्अ'

टपके जो सक़्फ़-ए-चश्म हो तो क़स्र-ए-तन ख़राब

कोई फल पाएगा क्या तुख़्म-ए-मोहब्बत बो कर

इस अमर-बेल में तो बर्ग-ओ-समर कुछ भी नहीं

अपनी अंगिया की कटोरी दिखाओ मुझ को

कहीं ठर्रे की हवस में ये मय-ख़्वार बंधे

तेग़-ए-इरफ़ाँ से रूह बिस्मिल है

हाल पर अपने हाल आता है

ख़ुश रहो यार अगर हम से हो बेज़ार बहुत

दिल अगर अपना सलामत है तो दिलदार बहुत

पूछे रिंदों से कोई इन मुफ़्तियों का झूट सच

दो दलीलों से ये कर लेते हैं दा'वा झूट सच

किसी गुल को जो अपना तुर्रा-ए-दस्तार समझे हम

तो बरसों टोकरा सर पर उठाया सरगिरानी का

क्या क्या मुझ से संग-दिली दिलबरों ने की

पत्थर पड़ें समझ पे समझा किसी तरह

मुझी पर क़त्अ हुई है क़बा-ए-दिल-सोज़ी

हवा से के छुपे मेरे पैरहन में चराग़

क़त्ल पर बीड़ा उठा कर तेग़ क्या बाँधोगे तुम

लो ख़बर अपनी दहन गुम है कमर मिलती नहीं

प्यार की आँख से दुश्मन को भी जो देखते हैं

हम ने ऐसे भी हैं अल्लाह के प्यारे देखे

आँखें जीने देंगी तिरी बे-वफ़ा मुझे

क्यूँ खिड़कियों से झाँक रही है क़ज़ा मुझे

ज़ुल्फ़-ए-दू-ता दोराहा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ्र है

ज़ाहिद इधर ख़राब उधर बरहमन ख़राब

ख़ूब चलती है नाव काग़ज़ की

घर में क़ाज़ी के माल आता है

मैं हाथ जोड़ता हूँ बड़ी देर से हुज़ूर

लग जाइए गले से अब इंकार हो चुका

वाइ'ज़ो हम रिंद क्यूँ-कर काबिल-ए-जन्नत नहीं

क्या गुनहगारों को मीरास-ए-पिदर मिलती नहीं

क़ाज़ी को जो रिंद कुछ चटा दें

मस्जिद की बग़ल में मय-कदा हो

दुनिया में 'बहर' कौन इबादत-गुज़ार है

सौम-ओ-सलात दाख़िल-ए-रस्म-ओ-रिवाज है

काँटों पे मिस्ल-ए-क़ैस कहाँ तक रवाँ-दवाँ

लैला-ए-जाँ है जिस्म की महमिल से दिल उचाट

मेरा लहू चटाएगा जब तक तेग़ को

क़ातिल को दहने हाथ से खाना हराम है

ग़ैर पर क्यूँ निगाह करते हो

मुझ को इस तीर का निशाना करो

बे-तरह दिल में भरा रहता है ज़ुल्फ़ों का धुआँ

दम निकल जाए किसी रोज़ घुट कर अपना

कमाल-ए-तालिब-ए-दुनिया-ए-दूँ है पीर-ए-हरम

ख़ुदा के घर में है लेकिन ख़ुदा से बाहर है

जूता नया पहन के वो पंजों के बल चले

कपड़े बदल के जामे से बाहर निकल चले

चिल्ला रहा हूँ क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मय की शक्ल

दे जाम के लबों से मुझे साक़िया जवाब

एक बोसा मिरी तनख़्वाह मिले मिले

आरज़ू है कि क़दमों से ये नौकर छूटे

अब्र-ए-बहार अब भी जचता नहीं नज़र में

कुछ आँसुओं के क़तरे अब भी हैं चश्म-ए-तर में

होगा ज़रूर एक इक दिन मुबाहिसा

रिज़वाँ से और कू-ए-सनम के मुक़ीम से

कब तालिब-ए-राहत हुए ज़ख़्मी-ए-मोहब्बत

मरहम की जो हाजत हुई तेज़ाब बनाया

निकलेगा दिल उस के गेसू में फँस कर

ये काला कभी मन उगलता नहीं है

है नगीना हर एक उ'ज़्व-ए-बदन

तुम को क्या एहतियाज ज़ेवर की

वाइ'ज़ का झूट बोलना तासीर कर गया

दम में नमाज़ियों की हुई अंजुमन ख़राब

भला हुआ कि हाथ आया जामा-ए-पुर-ज़र

गज़ी के कपड़े बदलते तो हम बदल जाते

मेरा दिल किस ने लिया नाम बताऊँ किस का

मैं हूँ या आप हैं घर में कोई आया गया

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