इरशाद ख़ान सिकंदर
ग़ज़ल 14
अशआर 24
खींच लाई है मोहब्बत तिरे दर पर मुझ को
इतनी आसानी से वर्ना किसे हासिल हुआ मैं
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बूढ़ी माँ का शायद लौट आया बचपन
गुड़ियों का अम्बार लगा कर बैठ गई
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मिरे ख़िलाफ़ सभी साज़िशें रचीं जिस ने
वो रो रहा है मिरी दास्ताँ सुनाता हुआ
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कल तेरी तस्वीर मुकम्मल की मैं ने
फ़ौरन उस पर तितली आ कर बैठ गई
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मुद्दतों आँखें वज़ू करती रहीं अश्कों से
तब कहीं जा के तिरी दीद के क़ाबिल हुआ मैं
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