कैफ़ अहमद सिद्दीकी के शेर
महसूस हो रहा है कि मैं ख़ुद सफ़र में हूँ
जिस दिन से रेल पर मैं तुझे छोड़ने गया
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इक बरस भी अभी नहीं गुज़रा
कितनी जल्दी बदल गए चेहरे
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ख़ुशी की आरज़ू क्या दिल में ठहरे
तिरे ग़म ने बिठा रक्खे हैं पहरे
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आज कुछ ऐसे शोले भड़के बारिश के हर क़तरे से
धूप पनाहें माँग रही है भीगे हुए दरख़्तों में
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तन्हाइयों को सौंप के तारीकियों का ज़हर
रातों को भाग आए हम अपने मकान से
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सर्द जज़्बे बुझे बुझे चेहरे
जिस्म ज़िंदा हैं मर गए चेहरे
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हम आज कुछ हसीन सराबों में खो गए
आँखें खुलीं तो जागते ख़्वाबों में खो गए
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तन्हाई की दुल्हन अपनी माँग सजाए बैठी है
वीरानी आबाद हुई है उजड़े हुए दरख़्तों में
'कैफ़' कहाँ तक तुम ख़ुद को बे-दाग़ रख्खोगे
अब तो सारी दुनिया के मुँह पर स्याही है
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आज फिर शाख़ से गिरे पत्ते
और मिट्टी में मिल गए पत्ते
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ख़ुदा मालूम किस आवाज़ के प्यासे परिंदे
वो देखो ख़ामुशी की झील में उतरे परिंदे
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'कैफ़' यूँ आग़ोश-ए-फ़न में ज़ेहन को नींद आ गई
जैसे माँ की गोद में बच्चा सिसक कर सो गया
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वो ख़ुद ही अपनी आग में जल कर फ़ना हुआ
जिस साए की तलाश में ये आफ़्ताब है
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चमन में शिद्दत-ए-दर्द-ए-नुमूद से ग़ुंचे
तड़प रहे हैं मगर मुस्कुराए जाते हैं
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