कलीम आजिज़ के शेर
दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो
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ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी
मजबूर थे हम उस से मोहब्बत भी बहुत थी
दर्द ऐसा है कि जी चाहे है ज़िंदा रहिए
ज़िंदगी ऐसी कि मर जाने को जी चाहे है
न जाने रूठ के बैठा है दिल का चैन कहाँ
मिले तो उस को हमारा कोई सलाम कहे
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रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो
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बात चाहे बे-सलीक़ा हो 'कलीम'
बात कहने का सलीक़ा चाहिए
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बहारों की नज़र में फूल और काँटे बराबर हैं
मोहब्बत क्या करेंगे दोस्त दुश्मन देखने वाले
गुज़र जाएँगे जब दिन गुज़रे आलम याद आएँगे
हमें तुम याद आओगे तुम्हें हम याद आएँगे
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करे है अदावत भी वो इस अदा से
लगे है कि जैसे मोहब्बत करे है
सुनेगा कौन मेरी चाक-दामानी का अफ़्साना
यहाँ सब अपने अपने पैरहन की बात करते हैं
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तुम्हें याद ही न आऊँ ये है और बात वर्ना
मैं नहीं हूँ दूर इतना कि सलाम तक न पहुँचे
क्या सितम है कि वो ज़ालिम भी है महबूब भी है
याद करते न बने और भुलाए न बने
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ये आँसू बे-सबब जारी नहीं है
मुझे रोने की बीमारी नहीं है
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ग़म है तो कोई लुत्फ़ नहीं बिस्तर-ए-गुल पर
जी ख़ुश है तो काँटों पे भी आराम बहुत है
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वो कहते हैं हर चोट पर मुस्कुराओ
वफ़ा याद रक्खो सितम भूल जाओ
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इश्क़ में मौत का नाम है ज़िंदगी
जिस को जीना हो मरना गवारा करे
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ये तर्ज़-ए-ख़ास है कोई कहाँ से लाएगा
जो हम कहेंगे किसी से कहा न जाएगा
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तल्ख़ियाँ इस में बहुत कुछ हैं मज़ा कुछ भी नहीं
ज़िंदगी दर्द-ए-मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
वो जो शा'इरी का सबब हुआ वो मु'आमला भी 'अजब हुआ
मैं ग़ज़ल सुनाऊँ हूँ इस लिए कि ज़माना उस को भुला न दे
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दिन एक सितम एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो दुश्मन को भी तुम मात करो हो
उठते हुओं को सब ने सहारा दिया 'कलीम'
गिरते हुए ग़रीब सँभाले कहाँ गए
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मौसम-ए-गुल हमें जब याद आया
जितना ग़म भूले थे सब याद आया
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भला आदमी था प नादान निकला
सुना है किसी से मोहब्बत करे है
हाँ कुछ भी तो देरीना मोहब्बत का भरम रख
दिल से न आ दुनिया को दिखाने के लिए आ
ज़रा देख आइना मेरी वफ़ा का
कि तू कैसा था अब कैसा लगे है
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उन्हीं के गीत ज़माने में गाए जाएँगे
जो चोट खाएँगे और मुस्कुराए जाएँगे
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कल कहते रहे हैं वही कल कहते रहेंगे
हर दौर में हम उन पे ग़ज़ल कहते रहेंगे
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फ़न में न मोजज़ा न करामात चाहिए
दिल को लगे बस ऐसी कोई बात चाहिए
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अपना लहू भर कर लोगों को बाँट गए पैमाने लोग
दुनिया भर को याद रहेंगे हम जैसे दीवाने लोग
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इक घर भी सलामत नहीं अब शहर-ए-वफ़ा में
तू आग लगाने को किधर जाए है प्यारे
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तुझे संग-दिल ये पता है क्या कि दुखे दिलों की सदा है क्या?
कभी चोट तू ने भी खाई है कभी तेरा दिल भी दुखा है क्या?
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वो बात ज़रा सी जिसे कहते हैं ग़म-ए-दिल
समझाने में इक उम्र गुज़र जाए है प्यारे
सुना है हमें बेवफ़ा तुम कहो हो
ज़रा हम से आँखें मिला लो तो जानें
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मिरी शाएरी में न रक़्स-ए-जाम न मय की रंग-फ़िशानियाँ
वही दुख-भरों की हिकायतें वही दिल-जलों की कहानियाँ
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मरना तो बहुत सहल सी इक बात लगे है
जीना ही मोहब्बत में करामात लगे है
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हमारे क़त्ल से क़ातिल को तजरबा ये हुआ
लहू लहू भी है मेहंदी भी है शराब भी है
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ख़मोशी में हर बात बन जाए है
जो बोले है दीवाना कहलाए है
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अब इंसानों की बस्ती का ये आलम है कि मत पूछो
लगे है आग इक घर में तो हम-साया हवा दे है
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तू रईस-ए-शहर-ए-सितम-गराँ मैं गदा-ए-कूचा-ए-आशिक़ाँ
तू अमीर है तो बता मुझे मैं ग़रीब हूँ तो बुरा है क्या
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वो सितम न ढाए तो क्या करे उसे क्या ख़बर कि वफ़ा है क्या?
तू उसी को प्यार करे है क्यूँ ये 'कलीम' तुझ को हुआ है क्या?
दिल दर्द की भट्टी में कई बार जले है
तब एक ग़ज़ल हुस्न के साँचे में ढले है
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कुछ रोज़ से हम शहर में रुस्वा न हुए हैं
आ फिर कोई इल्ज़ाम लगाने के लिए आ
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मिरा हाल पूछ के हम-नशीं मिरे सोज़-ए-दिल को हवा न दे
बस यही दुआ मैं करूँ हूँ अब कि ये ग़म किसी को ख़ुदा न दे
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दुनिया में ग़रीबों को दो काम ही आते हैं
खाने के लिए जीना जीने के लिए खाना
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आज़माना है तो आ बाज़ू ओ दिल की क़ुव्वत
तू भी शमशीर उठा हम भी ग़ज़ल कहते हैं
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मय-कदे की तरफ़ चला ज़ाहिद
सुब्ह का भूला शाम घर आया
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दिल थाम के करवट पे लिए जाऊँ हूँ करवट
वो आग लगी है कि बुझाए न बने है
मय में कोई ख़ामी है न साग़र में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चलो हो
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