मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
ग़ज़ल 18
अशआर 14
अदब बख़्शा है ऐसा रब्त-ए-अल्फ़ाज़-ए-मुनासिब ने
दो-ज़ानू है मिरी तब-ए-रसा तरकीब-ए-उर्दू से
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न शरमाओ आँखें मिला कर तो देखो
मुलाक़ात है हम से तुम से कभी की
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मुझ को रोते देख कर पास आए वो तफ़्हीम को
क्यूँ न दिल से दूँ दुआएँ अपने ग़ैन ओ मीम को
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देखो निगाह-ए-शौक़ से मेरी तरफ़ मुझे
ये मुद्दआ' है और कोई मुद्दआ' नहीं
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मिरी जानिब को करवट ले के गर मुझ से लिपट जाओ
अभी देने लगे मिरी तरह तुम को दुआ करवट
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