मुसहफ़ इक़बाल तौसिफ़ी
ग़ज़ल 26
नज़्म 23
अशआर 5
देखा नहीं उस को कितने दिन से
उँगली पे किया हिसाब हम ने
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मैं अगर चुप हूँ ये बहता हुआ दरिया क्या है
लब-कुशा हूँ तो मिरी बात से पहले क्या था
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किसी का नाम न लूँ और ग़ज़ल के पर्दे में
बयान उस की मैं सारी सिफ़ात भी कर लूँ
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क़ैद-ए-आवारगी-ए-जाँ ही बहुत है मुझ को
एक दीवार मिरी रूह के अंदर न बना
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अपना शहकार अभी ऐ मिरे बुत-गर न बना
दिल धड़कता है मिरा तू मुझे पत्थर न बना
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