प्रेम कुमार नज़र
ग़ज़ल 24
नज़्म 3
अशआर 11
आएगी हर तरफ़ से हवा दस्तकें लिए
ऊँचा मकाँ बना के बहुत खिड़कियाँ न रख
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एक अंगड़ाई से सारे शहर को नींद आ गई
ये तमाशा मैं ने देखा बाम पर होता हुआ
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दिल-ए-तबाह की ईज़ा-परस्तियाँ मालूम
जो दस्तरस में न हो उस की जुस्तुजू करना
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बहुत लम्बी मसाफ़त है बदन की
मुसाफ़िर मुब्तदी थकने लगा है
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