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राघवेंद्र द्विवेदी

1980 | दिल्ली, भारत

राघवेंद्र द्विवेदी

ग़ज़ल 42

अशआर 72

ज़िंदगी से तंग कर ख़ुद-कुशी कर ली किसी ने

और कोई ख़ुद-कुशी करता रहा है ज़िंदगी-भर

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ख़ाक से पैदा हुआ है ख़ाक में मिल जाएगा

एक कुल्हड़ की तरह है आदमी की ज़िंदगी

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मिले दो वक़्त की रोटी सुकूँ से नींद जाए

यही पहली ज़रूरत है जिसे हम भूल जाते हैं

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इक तरीक़ा ये भी था फल बाँटते वो उम्र-भर

भाइयों ने पेड़ काटा और लकड़ी बाँट ली

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सब का अलग अंदाज़ था सब रंग रखते थे जुदा

रहना सभी के साथ था सो ख़ुद को पानी कर लिया

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क़ितआ 10

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