रम्ज़ अज़ीमाबादी
ग़ज़ल 21
अशआर 4
मिरी अना ने सबक़ दे के ख़ुद-परस्ती का
छुड़ा दिया है ज़माने की बंदगी से मुझे
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रह-ए-हयात में काँटों ने मेहरबाँ हो कर
बचा लिया है अज़ाब-ए-शगुफ़्तगी से मुझे
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सभों से मिलता हूँ बेगाना-ए-तलब हो कर
न दोस्ती से ग़रज़ है न दुश्मनी से मुझे
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है समुंदर सामने प्यासे भी हैं पानी भी है
तिश्नगी कैसे बुझाएँ ये परेशानी भी है
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