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सलीम सिद्दीक़ी

1975 | बाराबंकी, भारत

अनोखे लहजे के ताज़ा-कार शायर

अनोखे लहजे के ताज़ा-कार शायर

सलीम सिद्दीक़ी

ग़ज़ल 23

नज़्म 1

 

अशआर 15

आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर

आज दहलीज़ मिरी छत के बराबर हुई है

कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित

मशवरे करता है मुंसिफ़ जो गुनहगार के साथ

हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से

चलो 'सलीम' अब इंसान हो के देखते हैं

अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें

दोस्तो आओ कि कुछ ख़्वाब दिखाते हैं तुम्हें

उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर

अब वो गिन गिन के खिलाता है निवाले मुझ को

पुस्तकें 1

 

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