साक़िब लखनवी के शेर
ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते
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बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे
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आधी से ज़ियादा शब-ए-ग़म काट चुका हूँ
अब भी अगर आ जाओ तो ये रात बड़ी है
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
ज़िंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे
मुश्किल-ए-इश्क़ में लाज़िम है तहम्मुल 'साक़िब'
बात बिगड़ी हुई बनती नहीं घबराने से
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सुनने वाले रो दिए सुन कर मरीज़-ए-ग़म का हाल
देखने वाले तरस खा कर दुआ देने लगे
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हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
सुनने वाले रात कटने की दुआ देने लगे
जिस शख़्स के जीते जी पूछा न गया 'साक़िब'
उस शख़्स के मरने पर उट्ठे हैं क़लम कितने
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अपने दिल-ए-बेताब से मैं ख़ुद हूँ परेशाँ
क्या दूँ तुम्हें इल्ज़ाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
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सोने वालों को क्या ख़बर ऐ हिज्र
क्या हुआ एक शब में क्या न हुआ
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किस नज़र से आप ने देखा दिल-ए-मजरूह को
ज़ख़्म जो कुछ भर चले थे फिर हवा देने लगे
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ऐ चमन वालो चमन में यूँ गुज़ारा चाहिए
बाग़बाँ भी ख़ुश रहे राज़ी रहे सय्याद भी
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बू-ए-गुल फूलों में रहती थी मगर रह न सकी
मैं तो काँटों में रहा और परेशाँ न हुआ
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उस के सुनने के लिए जम'अ हुआ है महशर
रह गया था जो फ़साना मिरी रुस्वाई का
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दीदा-ए-दोस्त तिरी चश्म-नुमाई की क़सम
मैं तो समझा था कि दर खुल गया मय-ख़ाने का
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आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
दिल डूबते हैं हालत-ए-बीमार देख कर
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बला से हो पामाल सारा ज़माना
न आए तुम्हें पाँव रखना सँभल कर
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चल ऐ हम-दम ज़रा साज़-ए-तरब की छेड़ भी सुन लें
अगर दिल बैठ जाएगा तो उठ आएँगे महफ़िल से
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कहने को मुश्त-ए-पर की असीरी तो थी मगर
ख़ामोश हो गया है चमन बोलता हुआ
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