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शाद लखनवी

1805 - 1899

शाद लखनवी

ग़ज़ल 58

अशआर 20

जब जीते-जी पूछा पूछेंगे क्या मरे पर

मुर्दे की रूह को भी घर से निकालते हैं

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तड़पने की इजाज़त है फ़रियाद की है

घुट के मर जाऊँ ये मर्ज़ी मिरे सय्याद की है

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मुश्किल में कब किसी का कोई आश्ना हुआ

तलवार जब गले से मिली सर जुदा हुआ

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मिरी बे-रिश्ता-दिली से उसे मज़ा मिल जाए

जिगर कबाब जो कोई जला-भुना मिल जाए

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हर एक जवाहर बेश-बहा चमका तो ये पत्थर कहने लगा

जो संग तिरा वो संग मिरा तू और नहीं मैं और नहीं

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