शकेब जलाली
ग़ज़ल 59
नज़्म 14
अशआर 44
अभी अरमान कुछ बाक़ी हैं दिल में
मुझे फिर आज़माया जा रहा है
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ख़ुद अपनी आग से शायद गुदाज़ हो जाएँ
पराई आग से कब संग-दिल पिघलते हैं
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जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत
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ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
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लोग देते रहे क्या क्या न दिलासे मुझ को
ज़ख़्म गहरा ही सही ज़ख़्म है भर जाएगा
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