विपुल कुमार के शेर
इक रोज़ खेल खेल में हम उस के हो गए
और फिर तमाम उम्र किसी के नहीं हुए
हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले
कितने प्यारे हैं मुझे छोड़ के जाने वाले
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उस हिज्र पे तोहमत कि जिसे वस्ल की ज़िद हो
उस दर्द पे ला'नत की जो अशआ'र में आ जाए
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इतना हैरान न हो मेरी अना पर प्यारे
इश्क़ में भी कई ख़ुद्दार निकल आते हैं
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मुझ से कब उस को मोहब्बत थी मगर मेरे बा'द
उस ने जिस शख़्स को चाहा वो मिरे जैसा था
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कुछ इस लिए भी तिरी आरज़ू नहीं है मुझे
मैं चाहता हूँ मिरा इश्क़ जावेदानी हो
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इक दिन तिरी गली में मुझे ले गई हवा
और फिर तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही
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इस से पहले कि ये आज़ार गवारा कर लें
आ मिरी जान मोहब्बत से किनारा कर लें
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दिल भी अजीब ख़ाना-ए-वहदत-पसंद था
इस घर में या तो तू रहा या बे-दिली रही
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इक लम्हा-ए-फ़िराक़ पे वारा गया मुझे
कैसी हसीन शाम में मारा गया मुझे
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हमीं ने हश्र उठा रक्खा है बिछड़ने पर
वो जान-ए-जाँ तो परेशान भी ज़ियादा नहीं
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सफीर-ए-इश्क़ हमें अब तो हम सफ़र कर लो
हमारे पास तो सामान भी ज़ियादा नहीं
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मैं तो शब-ए-फ़िराक़ था तुम एक उम्र थी
फिर भी ज़ियादा तुम से गुज़ारा गया मुझे
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बचा के आँख बिछड़ जाएँ उस से चुपके से
अभी तो अपनी तरफ़ ध्यान भी ज़ियादा नहीं
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अब के मसरूफ़ियत-ए-इश्क़ बहुत है हम को
तुम चले जाओ तो फ़ुर्सत से गुज़ारा कर लें
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दिलों पे दर्द का इम्कान भी ज़ियादा नहीं
वो सब्र है अभी नुक़सान भी ज़ियादा नहीं
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बदन में आग है रोग़न मिरे ख़याल में है
जुदा ही रह अभी ख़तरा बहुत विसाल में है
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वो एक हाथ बढ़ाएगा तुझ को पा लेगा
सो देख सब्र का एलान भी ज़ियादा नहीं
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उसे तो दौलत-ए-दुनिया भी कम भी पाने को
मिरी तो ज़ात का मीज़ान भी ज़ियादा नहीं
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तमाम इश्क़ की मोहलत है इस आँखों में
और एक लमहा-ए-इमकान भी ज़ियादा नहीं
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झील किनारा शांत पवन और हम दोनों
इक लम्हे का ख़ाली-पन और हम दोनों
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इक ख़्वाब जो मर जाए कहीं आँख से पीछे
इक चीख़ सिमटती हुई दीवार में आ जाए
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नवाह-ए-जाँ में बाहम एक हैरानी बनाने में
ब-ज़ाहिर दो बदन लगते हैं उर्यानी बनाने में
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