वसीम मलिक
ग़ज़ल 4
अशआर 6
कल साथ था कोई तो दर ओ बाम थे रौशन
तन्हा हूँ 'वसीम' आज तो घर काट रहा है
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कोई दस्तक कोई आहट न सदा है कोई
दूर तक रूह में फैला हुआ सन्नाटा है
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जो शख़्स मिरा दस्त-ए-हुनर काट रहा है
नादान है शादाब शजर काट रहा है
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लगता है जुदा सब से किरदार 'वसीम' उस का
वो शहर-ए-मोहब्बत का बाशिंदा नज़र आए
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शाख़ से कट कर अलग होने का हम को ग़म नहीं
फूल हैं ख़ुशबू लुटा कर ख़ाक हो जाएँगे हम
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