Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

एहतियात-ए-इश्क़

हिजाब इम्तियाज़ अली

एहतियात-ए-इश्क़

हिजाब इम्तियाज़ अली

MORE BYहिजाब इम्तियाज़ अली

    स्टोरीलाइन

    कहानी एक ऐसी लड़की की है, जिसने अपने प्रेमी को एक साल पहले देखा था और उसकी आँखों में उसकी वही छवि बसी हुई थी। अब जबकि वह उससे मिलने आ रहा था तो वह उसके इस्तिक़बाल में कोई कमी नहीं रहने देना चाहती थी। उसने सुना था कि उसका महबूब फौज में भर्ती हो गया है, इससे उसमें कुछ बांकपन आ गया होगा। मगर जब उसने उसे एयरपोर्ट पर देखा तो वह उसे देखकर इस क़दर हैरान हुई कि एक बार तो उसने उसे पहचानने से ही इंकार दिया।

    मैं ऊपर की मंज़िल में अर्शा-ए-चमन पर बैठी एक किताब पढ़ रही थी। नीचे पाएँ बाग़ मोतिया के फूलों की ख़ुशबू से महक रहा था।

    इतने में बाहर के सदर दरवाज़े पर किसी ने इत्तिलाई घंटी बजाई। क्या वाहियात है। मैंने अपने दिल से कहा, किताब का ये वरक़ कितना दिलचस्प था। तहरीर में रवानी के साथ उमुक़ था। लोग वाक़ई बहुत सताते हैं। कम से कम ये सफ़हा ख़त्म कर लेने देते। मुझे चाहिए दो एक गुस्सैले कुत्ते पाल लूँ ताकि बेवक़ूफ़ दोस्तों से निजात मिले।

    बड़बड़ाते हुए मैंने किताब बालकनी की दीवार पर रखी। नीचे बाग़ की तरफ़ झाँक कर देखा। जाने मैंने कितनी ही किताबें दोस्तों की मुदाख़िलत बे जा की वजह से बालकनी पर रखीं और भूल गई या हवा का झोंका उन्हें उड़ा ले गया। अगर उन सबको जमा किया जाए तो अच्छा ख़ासा छोटा सा कुतुब-ख़ाना बन जाए और ये सब दोस्तों की वजह से। हाँ... तो मैंने किताब हस्ब-ए-मामूल-ओ-आदत बालकनी की दीवार पर रखी और नीचे बाग़ में झाँक कर आने वाले को देखने लगी। देखा तो मेरी पुरानी और राज़दार सहेली एफ़ू ऊपर चली रही थी। मेरा ग़ुस्सा ख़ुशी से और उकताहट मुस्कुराहट से बदल गई। हम मज़ाक़ दोस्त आए तो दिल की कली खिल जाती है।

    आओ-आओ। चली आओ। काश मुझे मालूम होता कि तुम थीं। मैंने चिल्ला कर कहा।

    सुनो! वो ज़ीने दौड़ कर तै करते-करते बोली, मैं तुमको एक बेहद प्यारी बात सुनाने आई हूँ।

    हाय जल्द सुनाओ।

    आज रात मुनीर रहा है। वो हाँपते हुए बोली।

    मुनीर! मैंने हैरान हो कर पूछा।

    वो हँस पड़ी, क़सम ले लो मुनीर... पाँच दिन की छुट्टी पर रहा है। मैंने तुमसे कहा था ना कि उससे मेरी मुलाक़ात कराची की बंदरगाह पर हुई थी। मैंने यकायक अपने दिल में उसकी गहरी मोहब्बत महसूस की थी और उसके बाद हमारे अहद-ओ-पैमाँ हुए। ये कह उसने झुक कर दीवार से इश्क़-ए-पेचाँ का एक फूल तोड़ लिया और उसे सूँघने लगी।

    लेकिन एफ़ू। तुमने मोहब्बत में उजलत तो नहीं की? मैंने सुबह के दमकते आसमान पर नज़र डालते हुए पूछा।

    बस रहने दो तुम अपनी एहतियात-ए-इश्क़ रूही। तुम दूसरों को बुज़्दिली सिखाती फिरती हो। मैंने पहली ही नज़र में दिल खोल कर उसकी परस्तिश शुरू कर दी। बात ये है कि उसके संदली रंग और उसकी देव-क़ामती की मैं शैदाई हूँ। आँखों में गहराई है और मुस्कुराहट में बला की इज़हारियत।

    मैं अपनी किताबें समेट कर एक तरफ़ रखते हुए और इत्मीनान से एक कुर्सी पर बैठते हुए बोली, भला मुझे क्या ऐतिराज़ हो सकता है। अच्छा अब मुझे क्या करना चाहिए? तुम मेरे पास किस ग़रज़ से आई हो?

    एफ़ू अर्शा-ए-चमन की एक नीची सी दीवार पर बैठी टाँगें हिला रही थी। मुस्कुरा कर बोली, मैं चाहती हूँ कि उसे बजाय किसी होटल या रेस्तराँ में मदऊ करने के... तुम्हारे संग-मरमर के शह-नशीन में रात के खाने पर मदऊ करूँ। वो मोहब्बत के ख़्वाब देखने के लिए बेहतरीन जगह है। सुर्ख़ गुलाब गर्दन उठा-उठा कर नीले आसमानों को देखते हैं और तारों भरी रात का सन्नाटा उस शह-नशीन के क़रीब से दबे पाँव गुज़र जाता है।

    जब आदमी मोहब्बत करने लगता है तो जाने उसका लहजा शायराना क्यों हो जाता है। उसके एहसासात शबनम की बूँद की तरह नाज़ुक और शफ़्फ़ाफ़ क्यों बन जाते हैं और उसका एहसास-ए-कमतरी पर लगा कर कैसे उड़ जाता है। मैंने एफ़ू की शायरी सुनी फिर बोली, मुझे कोई इनकार नहीं एफ़ू। तुम शौक़ से मेरे शह नशीन को अपनी मोहब्बत की आमाज-गाह बनाओ। उसने झुक कर मुझे प्यार किया, बोली, लेकिन खाने पर तुम्हें भी मौजूद होना चाहिए रूही।

    शुक्रिया तुम्हारा। मैं ज़रूर खाने पर मौजूद होंगी बल्कि शह-नशीन के अक़ब में जो रात की रानी की झाड़ी लगी है उसमें टेप रिकॉर्ड रख कर इश्क़िया ग़ज़लें भी बजाऊँगी।

    क्या बात है तुम्हारी रूही। वाक़ई मुझे इसका ख़्याल भी आया होता। टेप रिकॉर्ड। मूसीक़ी मोहब्बत में चार चाँद लगा देती है। खुसूसन ऐसी हालत में जबकि आइन्दा महीने हमारी शादी हो रही है। तुम आज रात उसकी रानाई की क़ाइल हो जाओगी।

    मैं अब भी क़ाइल हूँ। तुम्हारी ज़बानी सुन चुकी हूँ।

    लेकिन देखने की और बात होती है रूही। थ्योरी पढ़ने और अमलन काम करने में बड़ा फ़र्क़ होता है। छरेरा जिस्म, आँखों में उमुक़, मुस्कुराहट में बला की इज़हारियत जैसे मोना लीज़ा की मुस्कुराहट!

    लेकिन एफ़ू मुझे क्लासिकी मुस्कुराहटें ना-पसंद हैं। गोया पक्के गाने की सी मुस्कुराहट।

    तुम हर वक़्त एतिराज़ करती रहती हो। ये आदत तुम्हारी बुरी है रूही। आज रात तुम उसकी मुस्कुराहटों की क़ाइल हो जाओगी। हाय-हाय। वो दीवार पर से कूद पड़ी और फ़र्त-ए-जज़्बात से बेचैन हो कर मेरी स्यामी बिल्ले को ज़ोर-ज़ोर से थपकने और उसके कान खींचने लगी।

    मुझे हँसी आई और अजीब सा लगा लेकिन मैं ज़ब्त कर गई। फिर कुछ याद करके बोली, चाहे तो पहले उन्हें यहीं मेहमान रखो। चंद दिनों की तो बात है। वो फ़ौरन मसर्रत से मुझसे लिपट गई।

    कमाल करती हो रूही। ऐसी उम्दा राय एक जाँ-निसार सहेली ही दे सकती है।

    मैं बोली, बात ये है मैंने अभी-अभी सेहन-ए-गुलिस्तान की चबूतरी पर एक गुलाबी रंग का कमरा बनवाया है। एक आसमानी रंग की चारपाई उसमें फ़िट की है। दरीचों पर हल्के कासनी जाली के पर्दे टाँगे हैं। चाहो तो तुम अपने क्लासिकी पैकर को उस क़ौस-ए-क़ुज़ह में ठहरा सकती हो।

    वो उसी क़ाबिल है कि उसे क़ौस-ए-क़ुज़ह में ठहराया जाए। वो शिद्दत-ए-मसर्रत से चीख़ पड़ी। रात की तैयारियाँ शुरू हो गईं। मैं जल्दी में अपने जूते वहीं छोड़ कर नंगे पाँव चौखट में जा खड़ी हुई और हिदायात देने लगी। बावर्ची को ताकीद की कि बिरयानी का गोश्त बिल्कुल हलवा बना दे। यानी इतना नर्म कि चिड़िया भी खा सके और हर साँस में ज़ाफ़रान की इफ़रात हो। मीठे में मिठास की इंतिहा हो और नमक-मिर्च बहुत एहतियात से इस्तेमाल करे। मैंने खानों की फ़ेहरिस्त देखी तो मीठे समेत चौदह थे। हाँ फल अलैहदा और ख़ुश्क मेवे इससे अलैहदा। इसके बाद आला दर्जे के सिगरेट पेश किए जाएँ और ख़िलाल के तिनके अर्क़-ए-गुलाब में ख़ुश्क करके मेज़ के सिरे पर रखने को भी कह दिया था। फिर बाग़ के दरवाज़े में बैठ कर कॉफ़ी पीने का अलैहदा इंतिज़ाम था। काफ़ी के साथ नमकीन बादाम थे। बूढ़ा बावर्ची गहरी सोच में मुब्तिला सर हिलाता हुआ चला गया। जाने वो क्या सोच रहा था। मुम्किन है सोच रहा हो कि मैं शाह-अफ़रा सियाब की दावत कर रही हूँ।

    जहाज़ आठ बजे आने वाला था मगर हमने वो दोपहर फूलों से लदी हुई बाग़ की एक रविश बैठ कर शतरंज खेलते हुए बसर कर डाली क्योंकि इंतिज़ार की घड़ियाँ सदियों में कटती हैं। हम दोनों ही खेल में हारते रहे क्योंकि कुछ पता नहीं लग रहा था कि क्या खेल रहे हैं। गहरे गुलाबी रंग की एशियाई दोपहर थी और आसमान पिघले हुए नीलम की तरह दमक रहा था। कासनी टहनियों पर सब्ज़ रंग के परिंदे बैठे दर्द मोहब्बत के नग़मे अलाप रहे थे। वो दोपहर हमने बड़े इज़्तिरार में काटी।

    मैं पहले कह चुकी हूँ कि जहाज़ आठ बजे आने वाला था मगर एफ़ू शाम बजे से ज़र्क़-बर्क़ लिबास में बन-ठन कर तैयार थी। मैंने एक हल्के गुलाबी रंग की चादर जिस्म के गिर्द लपेट रखी थी। ख़स का इत्र लगा रखा था और हसीन आदमी से मुलाक़ात के लिए तैयार थी।

    एक महीने बाद हमारी शादी हो जाएगी रूही। मेरे अब्बा ने पाँच महीने पहले अरूसी लिबास का ऑर्डर दे दिया था ताकि शादी में दर्ज़ी की वजह से ख़लल पड़े।

    बड़े दूर-अंदेश हैं। बड़ा अच्छा किया। मैंने तारीफ़ की फिर बोली, तुमने इस सिलसिले में हर बात आनन-फ़ानन कर दी। लम्हे भर में तुमने मोहब्बत कर ली। लम्हे भर में अरूसी लिबास सिलवा लिया। चट मंगनी पट ब्याह इसी को कहते हैं एफ़ू।

    वरना और क्या करती? मैं तुम जैसी सुस्त हूँ कि एक बात पर घंटों सोचती रह जाऊँ और एक वाक़िए पर सालों ग़ौर करती रहूँ। एफ़ू ने हिक़ारत से मेरी ख़ामियाँ मुझको जताईं। मैं बोली, मैं तुम सी तेज़ी कहाँ से लाऊँ! अपनी-अपनी फ़ितरत है। एफ़ू मुस्कुरा कर कहने लगी, लेकिन तुम मुनीर को देखोगी तो अंगुश्त ब-दंदाँ रह जाओगी और मेरी तेज़ी फुर्ती का रोना दोबारा रोओगी। छरेरा जिस्म। आँखों में उमुक़। मुस्कुराहट में बला की इज़हारियत।

    बहार की उस होश रुबा हसीन रात में जब हम मुनीर को लेने हवाई अड्डे पर पहुँचे तो मुअत्तर हवाएँ हमारे रुख़्सारों को मस करने लगीं। एफ़ू बात-बात पर बिला वजह क़हक़हे लगा रही थी और मैं उसे हैरत से देख रही थी। थोड़ी देर बाद एफ़ू कहने लगी, मैंने तुमको बताया नहीं। अब मुनीर फ़ौज में शरीक हो गया है। पहले महज़ शायर था। अब फ़ौजी बाक़ायदगी ने उसे और दिलकश बना दिया होगा। वो हँसे जा रही थी।

    फ़ौजी बाक़ायदगी? मैंने कहा, मगर उससे तो इन्फ़िरादियत मारी जाती है।

    मारी जाती है तो मारी जाने दो। बाँकपन तो पैदा हो जाता है। एफ़ू ने झल्ला कर कहा।

    ज़रूर। मैंने जवाब दिया।

    वो अप्रैल की तारों भरी रात... इतने में अचानक तारों के नीचे एक और दुमदार तारा उभरा। वो हवाई जहाज़ था। फिर वो ज़मीन पर लड़खड़ाता यूँ उतरा कि मैंने समझा कि कोई शहाब साक़िब टूट कर गिर पड़ा है। मुसाफ़िर उतरने लगे। हम दोनों दूर खड़ी टकटकी बांध कर देख रही थीं। ज़मीन पर इतनी रौशनी थी कि हम मुसाफ़िरों की शक्लें देख सकते। आख़िर बमुश्किल हमें एक दराज़ क़द आदमी हाथ में बैग लिए अपनी तरफ़ आता हुआ नज़र आया। एफ़ू चीख़ पड़ी, वो रहा... वो... हँस की तरह चलता हुआ चला रहा है। चला रहा है...

    मैं भी इश्तियाक़ से देखने लगी।

    मुनीर! शिद्दत-ए-जज़्बात से पस्त आवाज़ में एफ़ू चीख़ी।

    एफ़ू। मुनीर चिल्लाया।

    जब हम तीनों मुसाफ़िरों के इज़्दिहाम और अंधेरे के सैलाब से बाहर रौशनी में निकल आए तो नज़र उठा कर देखा तो एक दोहरा बल्कि फ़र्बा-अंदाम आदमी जिसकी आँखों में वहशत थी, जिसकी रंगत तक़रीबन सियाह थी, जिसके भद्दे-पन ने उसे अहमक़ सा बना रखा था, हमारे साथ-साथ चल रहा था। ग़ौर से देखने पर इस राज़ का भी इन्किशाफ़ हुआ कि उसके होंटों के गिर्द मूँछों की कमान भी रखी है।

    हाय... ही। एफ़ू अचानक ज़ोर से चीख़ पड़ी। फिर सर उठा कर उसको देखते हुए बोली, हाय... ही। ये मुनीर नहीं हो सकता। मर्द ने पलट कर देखा, मुस्कुरा कर बोला, क्यों नहीं हो सकता! अरे एफ़ू प्यारी... साल भर में तुम मुझे भूल गईं? मैं तुम्हारा मुनीर हूँ।

    मुझे हँसी गई जिसे मैंने बड़ी एहतियात से रोकने की कोशिश की। फ़ौजी तरतीब ने उसमें बाँक-पन पैदा कर दिया होगा। एफ़ू के ये अलफ़ाज़ मेरे कानों में गूँजने लगे। एफ़ू के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। सवाल कर रही थी, तुम?

    तुम्हें शुबहा है एफ़ू? आने वाला रूमानी अंदाज़ में पूछ रहा था। काश कि शुबहा होता। यक़ीन होता... एफ़ू बेहद परेशान लहजे में बोली,ख़ैर बाहर तो निकलो। कार खड़ी है।

    हम तीनों कार में जा बैठे। दो मिनट मौत की सी ख़ामोशी तारी रही। चश्म ज़दन में तख़्ता उलटते देख कर मैं ख़ुद हैरान थी। एफ़ू पेच-ओ-ताब खा रही थी। दाएँ-बाएँ मैं और एफ़ू थीं। दरमियान में वो बाँका बैठा था। मुझे ज़ोर से हँसी रही थी और मैं सर दरीचे से बाहर किए रूमाल से अपना मुँह बंद कर रही थी। जल्द बाज़ी और उजलत की ऐसी इबरतनाक सज़ा किसी को पाते हुए मैंने कभी देखा था।

    एफ़ू बद-हवास और ग़मग़ीन बैठी थी। बैठे-बैठे उसने मुनीर पर एक सरसरी नज़र डाल कर पूछा,आख़िर बताओ तुमको हो क्या गया है। क्या उफ़्ताद पड़ी? इतने बदल कैसे गये?

    मैं बदल सकता हूँ एफ़ू? वही दिल है वही जज़्बात...

    मगर... तुम वो नहीं रहे... साल भर में दरख़्त भी इतने बदल नहीं जाते जितने तुम बदल गए हो।

    किस तरीक़ पर बदला हूँ? मेहमान अज़ीज़ ने मासूमियत से सवाल किया। शायद उसके लहजे में मासूमियत का एहसास एफ़ू को भी हो गया, मेरा मतलब है, बस, यही... कि तुम-तुम रहे... अच्छा ये देखो... ये गया होटल गुलिस्तान। तुम्हारे लिए सबसे आला दर्जे का कमरा मख़सूस कर लिया गया है।

    मैं हैरान हो कर एफ़ू को देखने लगी, बोली, यहाँ? एफ़ू ज़रा तल्ख़ी से बोली, हाँ-हाँ यहाँ। यहाँ ये ज़ियादा आराम से रहेंगे। फिर वो मुनीर की तरफ़ मुड़ कर बोली, अगर नाइट कोच से मैं आज चली गई तो कल सुबह तुमसे मुलाक़ात हो सकेगी। ख़ुदा हाफ़िज़। फ़ी अमानिल्लाह!

    थोड़ी देर बाद जब हम अपने घर पहुँचे तो बावर्ची की तरफ़ से गर्म काफ़ी की मुअत्तर लपटें और बिरयानी के गोश्त की इश्तिहा-अंगेज़ ख़ुशबू रही थी जो सेहन में फैली हुई थी मगर एफ़ू की इश्तिहा ग़ायब थी और वो गहरी सोच में थी और मैं बे एहतियाती-ए-इश्क़ पर ग़ौर कर रही थी।

    कुछ देर बाद वो बोली, रूही! आज की नाइट कोच से मैं बड़ी दूर जा रही हूँ। फिर कभी तुमसे मुलाक़ात होगी। और वो बाग़ के ज़ीने तै करके बाहर निकल गई।

    ये एक वाक़िआ है मगर सच्चा। काश, आप इसे कहानी समझें।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए