Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

बेगू

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    कश्मीर की सैर के लिए गए एक ऐसे नौजवान की कहानी जिसे वहाँ एक स्थानीय लड़की बेगू से मोहब्बत हो जाती है। वह बेगू पर पूरी तरह मर-मिटता है कि तभी उस नौजवान का दोस्त बेगू के चरित्र के बारे में कई तरह की बातें उसे बताता है। वैसी ही बातें वह दूसरे और लोगों से भी सुनता है। ये सब बातें सुनने के बाद उसे बेगू से नफ़रत हो जाती है, मगर बेगू उसकी जुदाई में अपनी जान दे देती है। बेगू की मौत के बाद वह नौजवान भी इश्क़ की लगी आग में जल कर मर जाता है।

    तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता?

    आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आपके इंजेक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए, मैं इस वक़्त आपसे बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ... क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है।

    आप मेरी तरफ़ इस तरह देखिए डाक्टर साहब, मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़सत कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन-चार मील चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है। किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा और... मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं, जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं।

    आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बाख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशतनाक अंजाम से बाख़बर था। जानता था और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी।

    मैंने उस गेंद को जिसे आप ज़िंदगी के नाम से पुकारते हैं, ख़ुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार कर काटा है। इसमें किसी का कोई क़ुसूर नहीं। वाक़िया ये है कि मैं इस खेल में लज़्ज़त महसूस कर रहा हूँ। लज़्ज़त... हाँ लज़्ज़त... मैंने अपनी ज़िंदगी की कई रातें हुस्न-फ़रोश औरतों के तारीक अड्डों पर गुज़ारी हैं। शराब के नशे में चूर मैंने किस बेदर्दी से ख़ुद को इस हालत में पहुंचाया।

    मुझे याद है, उन ही अड्डों की स्याह पेशा औरत... क्या नाम था उसका? हाँ गुलज़ार, मुझे इस बुरी तरह अपनी जवानी को कीचड़ में लत-पत करते देख कर मुझसे हमदर्दी करने लग गई थी। बेवक़ूफ़ औरत, उसको क्या बताता कि मैं इस कीचड़ में किस का अक्स देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे गुलज़ार और उसकी दीगर हमपेशा औरतों से नफ़रत थी और अब भी है लेकिन क्या आप मरीज़ों को ज़हर नहीं खिलाते अगर उससे अच्छे नताइज की उम्मीद हो।

    मेरे दर्द की दवा ही तारीक ज़िंदगी थी। मैंने बड़ी कोशिश और मुसीबतों के बाद इस अंजाम को बुलाया है जिस की कुछ रुएदाद आपने मेरे सिरहाने एक तख़्ती पर लिख कर लटका रखी है। मैंने उसके इंतिज़ार में एक एक घड़ी किस बेताबी से काटी है, आह! कुछ पूछिए! लेकिन अब मुझे दिली तस्कीन हासिल हो चुकी है। मेरी ज़िंदगी का मक़सद पूरा हो गया। मैं दिक़ और सिल का मरीज़ हूँ। इस मर्ज़ ने मुझे खोखला कर दिया है... आप हक़ीक़त का इज़हार क्यों नहीं कर देते।

    बख़ुदा इससे मुझे और तस्कीन हासिल होगी। मेरा आख़िरी सांस आराम से निकलेगा... हाँ डाक्टर साहब ये तो बताईए, क्या आख़िरी लम्हात वाक़ई तकलीफ़देह होते हैं? मैं चाहता हूँ मेरी जान आराम से निकले। आज मैं वाक़ई बच्चों की सी बातें कर रहा हूँ। आप अपने दिल में यक़ीनन मुस्कुराते होंगे कि मैं आज मा’मूल से बहुत ज़्यादा बातूनी हो गया हूँ... दीया जब बुझने के क़रीब होता है तो उसकी रोशनी तेज़ हो जाया करती है। क्या मैं झूट कह रहा हूँ?

    आप तो बोलते ही नहीं और मैं हूँ कि बोले जा रहा हूँ। हाँ, हाँ, बैठिए। मेरा जी चाहता है, आज किसी से बातें किए जाऊं। आप आते तो ख़ुदा मालूम मेरी क्या हालत होती। आपका सफ़ेद सूट आँखों को किस क़दर भला मालूम हो रहा है। कफ़न भी इसी तरह साफ़ सुथरा होता है फिर आप मेरी तरफ़ इस तरह क्यों देख रहे हैं। आपको क्या मालूम कि मैं मरने के लिए किस क़दर बेताब हूँ।

    अगर मरने वालों को कफ़न ख़ुद पहनना हो तो आप देखते मैं उसको कितनी जल्दी अपने गिर्द लपेट लेता। मैं कुछ अर्सा और ज़िंदा रह कर क्या करूंगा? जब कि वो मर चुकी है। मेरा ज़िंदा रहना फ़ुज़ूल है। मैंने इस मौत को बहुत मुश्किलों के बाद अपनी तरफ़ आमादा किया है और अब मैं इस मौक़ा को हाथ से जाने नहीं दे सकता। वो मर चुकी है और अब मैं भी मर रहा हूँ। मैंने अपनी संगदिली... वो मुझे संगदिल के नाम से पुकारा करती थी, की क़ीमत अदा करदी है और ख़ुदा गवाह है कि उसका कोई भी सिक्का खोटा नहीं। मैं पाँच साल तक उनको परखता रहा हूँ, मेरी उम्र इस वक़्त पच्चीस बरस की है। आज से ठीक सात बरस पहले मेरी उससे मुलाक़ात हुई थी। आह, इन सात बरसों की रुएदाद कितनी हैरतअफ़ज़ा है अगर कोई शख़्स उसकी तफ़सील काग़ज़ों पर फैला दे तो इंसानी दिलों की दास्तानों में कैसा दिलचस्प इज़ाफ़ा हो। दुनिया एक ऐसे दिल की धड़कन से आश्ना होगी जिसने अपनी ग़लती की क़ीमत ख़ून की उन थूकों में अदा की है जिन्हें आप हर रोज़ जलाते रहते हैं कि उन के जरासीम दूसरों तक पहुंचें।

    आप मेरी बकवास सुनते सुनते क्या तंग तो नहीं आगए? ख़ुदा मालूम क्या क्या कुछ बकता रहा हूं। तकल्लुफ़ से काम लीजिए, आप वाक़ई कुछ नहीं समझ सकते, मैं ख़ुद नहीं समझ सका। सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि बटोत से वापस आकर मेरे दिल-ओ-दिमाग़ का हर जोड़ हिल गया था। अब या’नी आज जब कि मेरे जुनून का दौरा ख़त्म हो चुका है और मौत को चंद क़दम के फ़ासले पर देख रहा हूँ। मुझे यूं महसूस होता कि वो वज़न जो मेरी छाती को दाबे हुए था हल्का हो गया है और मैं फिर ज़िंदा हो रहा हूँ।

    मौत में ज़िंदगी... कैसी दिलचस्प चीज़ है! आज मेरे ज़ेहन से धुंद के तमाम बादल उठ गए हैं। मैं हर चीज़ को रोशनी में देख रहा हूँ। सात बरस पहले के तमाम वाक़ियात इस वक़्त मेरी नज़रों के सामने हैं। देखिए... मैं लाहौर से गर्मियां गुज़ारने के लिए कश्मीर की तैयारियां कर रहा हूँ। सूट सिलवाए जा रहे हैं। बूट डिब्बों में बंद किए जा रहे हैं। होल्डाल और ट्रंक कपड़ों से पुर किए जा रहे हैं। मैं रात की गाड़ी से जम्मू रवाना होता हूँ। शमीम मेरे साथ है। गाड़ी के डिब्बे में बैठ कर हम अ’र्सा तक बातें करते रहते हैं।

    गाड़ी चलती है। शमीम चला जाता है। मैं सो जाता हूँ। दिमाग़ हर क़िस्म के फ़िक्र से आज़ाद है। सुबह जम्मू की स्टेशन पर जागता हूँ। कश्मीर की हसीन वादी की होने वाली सैर के ख़यालात में मगन लारी पर सवार होता हूँ। बटोत से एक मील के फ़ासले पर लारी का पहिया पंक्चर हो जाता है। शाम का वक़्त है इसलिए रात बटोत के होटल में काटनी पड़ती है। उस होटल का कमरा मुझे बेहद ग़लीज़ मालूम होता है मगर क्या मालूम था कि मुझे वहां पूरे दो महीने रहना पड़ेगा।

    सुबह सवेरे उठता हूँ तो मालूम होता है कि लारी के इंजन का एक पुर्ज़ा भी ख़राब हो गया है। इस लिए मजबूरन एक दिन और बटोत में ठहरना पड़ेगा। ये सुन कर मेरी तबीयत किस क़दर अफ़सुर्दा हो गई थी! इस अफ़सुर्दगी को दूर करने के लिए मैं... मैं उस रोज़ शाम को सैर के लिए निकलता हूँ। चीड़ के दरख़्तों का तनफ़्फ़ुस, जंगली परिन्दों की नग़्मा सराइयाँ सेब के लदे हुए दरख़्तों का हुस्न और ग़ुरूब होते हुए सूरज का दिलकश समां, लारी वाले की बेएहतियाती और रंग में भंग डालने वाली तक़दीर की गुस्ताख़ी का रंज अफ़ज़ा ख़याल मह्व कर देता है।

    मैं नेचर के मसर्रत अफ़ज़ा मनाज़िर से लुत्फ़अंदोज़ होता सड़क के एक मोड़ पर पहुंचता हूँ... दफ़अ’तन मेरी निगाहें उससे दो-चार होती हैं। बेगू मुझसे बीस क़दम के फ़ासले पर अपनी भैंस के साथ खड़ी है... जिस दास्तान का अंजाम इस वक़्त आपके पेश-ए-नज़र है, उसका आग़ाज़ यहीं से होता है।

    वो जवान थी। उसकी जवानी पर बटोत की फ़िज़ा पूरी शिद्दत के साथ जल्वागर थी। सब्ज़ लिबास में मल्बूस वो सड़क के दरमियान मकई का एक दराज़ क़द बूटा मालूम हो रही थी चेहरे के ताँबे ऐसे ताबां रंग पर उसकी आँखों की चमक ने एक अ’जीब कैफ़ियत पैदा करदी थी जो चश्मे के पानी की तरफ़ साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ थीं... मैं उसको कितना अ’र्सा देखता रहा, ये मुझे मालूम नहीं। लेकिन इतना याद है कि मैंने दफ़अ’तन अपना सीना मोसीक़ी से लबरेज़ पाया और फिर मैं मुस्कुरा दिया।

    उसकी बहकी हुई निगाहों की तवज्जो भैंस से हट कर मेरे तबस्सुम से टकराई। मैं घबरा गया। उसने एक तेज़ तजस्सुस से मेरी तरफ़ देखा, जैसे वो किसी भूले हुए ख़्वाब को याद कर रही है। फिर उस ने अपनी छड़ी को दाँतों में दबा कर कुछ सोचा और मुस्कुरा दी। उसका सीना चश्मे के पानी की तरह धड़क रहा था। मेरा दिल भी मेरे पहलू में अंगड़ाइयां ले रहा था और ये पहली मुलाक़ात किस क़दर लज़ीज़ थी। उसका ज़ायक़ा अभी तक मेरे जिस्म की हर रग में मौजूद है।

    वो चली गई... मैं उसको आँखों से ओझल होते देखता रहा। वो इस अंदाज़ से चल रही थी जैसे कुछ याद कर रही है। कुछ याद करती है मगर फिर भूल जाती है। उसने जाते हुए पाँच-छः मर्तबा मेरी तरफ़ मुड़ कर देखा लेकिन फ़ौरन सर फेर लिया। जब वो अपने घर में दाख़िल हो गई जो सड़क के नीचे मकई के छोटे से खेत के साथ बना हुआ था।

    मैं अपनी तरफ़ मुतवज्जो हुआ, मैं उसकी मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुका था। इस एहसास ने मुझे सख़्त मुतहय्यर किया। मेरी उम्र उस वक़्त अठारह साल की थी। कॉलेज में अपने हमजमाअ’त तलबा की ज़बानी मैं मोहब्बत के मुतअ’ल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुका था। इश्क़िया दास्तानें भी अक्सर मेरे ज़ेर मुताला रही थीं। मगर मोहब्बत के हक़ीक़ी मा’नी मेरी नज़रों से पोशीदा थे। उसके जाने के बाद जब मैंने एक नाक़ाबिल-ए-बयान तल्ख़ी अपने दिल की धड़कनों में हल होती हुई महसूस की तो मैंने ख़याल किया, शायद इसी का नाम मोहब्बत है... ये मोहब्बत ही थी... औरत से मोहब्बत करने का पहला मक़सद ये होता है कि वो मर्द की हो जाये या’नी वो उससे शादी करले और आराम से अपनी बक़ाया ज़िंदगी गुज़ार दे।

    शादी के बाद ये मोहब्बत करवट बदलती है। फिर मर्द अपनी महबूबा के काँधों पर एक घर ता’मीर करता है। मैंने जब बेगू से अपने दिल को वाबस्ता होते महसूस किया तो फ़ितरी तौर पर मेरे दिल में उस रफीक़ा-ए-हयात का ख़याल पैदा हुआ जिसके मुतअ’ल्लिक़ मैं अपने कमरे की चार दीवारी में कई ख़्वाब देख चुका था। इस ख़याल के आते ही मेरे दिल से ये सदा उठी, “देखो सईद, ये लड़की ही तुम्हारे ख़्वाबों की परी है।” चुनांचे मैं तमाम वाक़ए’ पर ग़ौर करता हुआ होटल वापस आया और एक माह के लिए होटल का वो कमरा किराए पर उठा लिया जो मुझे बेहद ग़लीज़ महसूस हुआ था। मुझे अच्छी तरह याद है कि होटल का मालिक मेरे इस इरादे को सुन कर बहुत मुतहय्यर हुआ था।

    इसलिए कि मैं सुबह उसकी ग़लाज़त पसंदी पर एक तवील लेक्चर दे चुका था। दास्तान कितनी तवील होती जा रही है। मगर मुझे मालूम है कि आप इसे ग़ौर से सुन रहे हैं... हाँ, हाँ आप सिगरेट सुलगा सकते हैं। मेरे गले में आज खांसी के आसार महसूस नहीं होते। आपकी डिबिया देख कर मेरे ज़ेहन में एक और वाक़िया की याद ताज़ा हो गई है।

    बेगू भी सिगरेट पिया करती थी। मैंने कई बार उसे गोल्ड फ्लेक की डिबियां ला कर दी थीं। वो बड़े शौक़ से उनको मुँह में दबा कर धुएं के बादल उड़ाया करती थीं। धूवां! मैं उस नीले नीले धुएं को अब भी देख रहा हूँ जो उसके गीले होंटों पर रक़्स किया करता था... हाँ, तो दूसरे रोज़ मैं शाम को उसी वक़्त उधर सैर को गया, जहां मुझे वो सड़क पर मिली थी।

    देर तक सड़क के एक किनारे पत्थरों की दीवार पर बैठा रहा मगर वो नज़र आई... उठा और टहलता टहलता आगे निकल गया। सड़क के दाएं हाथ ढलवान थी, जिस पर चीड़ के दरख़्त उगे हुए थे। बाएं हाथ बड़े बड़े पत्थरों के कटे फटे सर उभर रहे थे। उन पर जमी हुई मिट्टी के ढेलों में घास उगी हुई थी। हवा ठंडी और तेज़ थी। चीड़ के तागा नुमा पत्तों की सरसराहट कानों को बहुत भली मालूम होती थी। जब मोड़ मुड़ा तो दफ़अ’तन मेरी निगाहें सामने उठीं। मुझसे सौ क़दम के फ़ासले पर वो अपनी भैंस को एक संगीन हौज़ से पानी पिला रही थी।

    मैं क़रीब पहुंचा मगर उसको नज़र भर के देखने की जुर्रत कर सका और आगे निकल गया और जब वापस मुड़ा तो वो घर जा चुकी थी। अब हर रोज़ उस तरफ़ सैर को जाना मेरा मा’मूल हो गया मगर बीस रोज़ तक मैं उससे मुलाक़ात कर सका। मैंने कई बार बावली पर पानी पीते वक़्त उस से हमकलाम होने का इरादा किया, मगर ज़बान गुंग हो गई, कुछ बोल सका।

    क़रीबन हर रोज़ मैं उसको देखता, मगर रात को जब मैं तसव्वुर में उसकी शक्ल देखना चाहता तो एक धुंद सी छा जाती। ये अ’जीब बात है कि मैं उसकी शक्ल को इसके बावजूद कि उसे हर रोज़ देखता था भूल जाता था। बीस दिनों के बाद एक रोज़ चार बजे के क़रीब जब कि मैं एक बावली के ऊपर चीड़ के साये में लेटा था।

    वो ख़ुर्द साल लड़के को लेकर ऊपर चढ़ी। उसको अपनी तरफ़ आता देख कर मैं सख़्त घबरा गया। दिल में यही आया कि वहां से भाग जाऊं लेकिन इसकी सकत भी रही। वो मेरी तरफ़ देखे बग़ैर आगे निकल गई। चूँकि उसके क़दम तेज़ थे, इसलिए लड़का पीछे रह गया। मैं उठ कर बैठ गया। उसकी पीठ मेरी तरफ़ थी। दफ़अ’तन लड़के ने एक चीख़ मारी और चश्म-ए-ज़दन में चीड़ के ख़ुश्क पत्तों पर से फिसल कर नीचे रहा।

    मैं फ़ौरन उठा और भाग कर उसे अपने बाज़ूओं में थाम लिया। चीख़ सुन कर वो मुड़ी और दौड़ने के लिए बढ़े हुए क़दम रोक कर आहिस्ता आहिस्ता मेरी तरफ़ आई। अपनी जवान आँखों से मुझे देखा और लड़के से ये कहा, “ख़ुदा जाने तुम क्यों गिर गिर पड़ते हो?”

    मैंने गुफ़्तगु शुरू करने का एक मौक़ा पा कर उससे कहा, “बच्चा है इसकी उंगली पकड़ लीजिए। इन पत्तों ने ख़ुद मुझे कई बार औंधे मुँह गिरा दिया है।”

    ये सुनकर वो खिलखिला कर हंस पड़ी, “आपके हैट ने तो ख़ूब लुढ़कनियां खाई होंगी।”

    “आप हंसती क्यों हैं? किसी को गिरते देख कर आपकी तबीयत इतनी शाद क्यों होती है और जो किसी रोज़ आप गिर पड़ीं तो... वो घड़ा जो हर रोज़ शाम के वक़्त आप घर ले जाती है किस बुरी तरह ज़मीन पर गिर कर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा।”

    “मैं नहीं गिर सकती...” ये कहते हुए उसने दफ़अ’तन नीचे बावली की तरफ़ देखा। उसकी भैंस नाले पर बंधे हुए पुल की तरफ़ ख़रामां ख़रामां जा रही थी। ये देख कर उसने अपने हलक़ से एक अ’जीब क़िस्म की आवाज़ निकाली। उसकी गूंज अभी तक मेरे कानों में महफ़ूज़ है। किस क़दर जवान थी ये आवाज़। उसने बढ़ कर लड़के को कांधे पर उठा लिया और भैंस को “ए छल्लां, छल्लां” के नाम से पुकारती हुई चशम-ए-ज़दन में नीचे उतर गई।

    भैंस को वापस मोड़ कर उसने मेरी तरफ़ देखा और घर को चल दी... उस मुलाक़ात के बाद उससे हमकलाम होने की झिझक दूर हो गई। हर रोज़ शाम के वक़्त बावली पर या चीड़ के दरख़्तों तले मैं उससे कोई कोई बात शुरू कर देता। शुरू शुरू में हमारी गुफ़्तुगू का मौज़ू भैंस था।

    फिर मैंने उससे उसका नाम दरयाफ़्त किया और उसने मेरा। इसके बाद गुफ़्तुगू का रुख़ असल मतलब की तरफ़ गया। एक रोज़ दोपहर के वक़्त जब वो नाले में एक बड़े से पत्थर पर बैठी अपने कपड़े धो रही थी, मैं उसके पास बैठ गया। मुझे किसी ख़ास बात का इज़हार करने पर तैयार देख कर उसने जंगली बिल्ली की तरह मेरी तरफ़ घूर कर देखा और ज़ोर ज़ोर से अपनी शलवार को पत्थर पर झटकते हुए कहा, “आप कश्मीर कब जा रहे हैं। यहां बटोत में क्या धरा है जो आप यहां ठहरे हुए हैं।”

    ये सुन कर मैंने मुस्तफ़सिराना निगाहों से उसकी तरफ़ देखा। गोया मैं उसके सवाल का जवाब ख़ुद उसकी ज़बान से चाहता हूँ। उसने निगाहें नीची कर लीं और मुस्कुराते हुए कहा, “आप सैर करने के लिए आए हैं। मैंने सुना है कश्मीर में बहुत से बाग़ हैं। आप वहां क्यों नहीं चले जाते?”

    मौक़ा अच्छा था, चुनांचे मैंने दिल के तमाम दरवाज़े खोल दिए। वो मेरे जज़्बात के बहते हुए धारे का शोर ख़ामोशी से सुनती रही। मेरी आवाज़ नाले के पानी की गुनगुनाहट में जो नन्हे नन्हे संगरेज़ों से खेलता हुआ बह रहा था डूब डूब कर उभर रही थी। हमारे सुरों के ऊपर अखरोट के घने दरख़्त में चिड़ियां चहचहा रही थीं। हवा इस क़दर तर-ओ-ताज़ा और लतीफ़ थी कि उसका हर झोंका बदन पर एक ख़ुशगवार कपकपी तारी कर देता था।

    मैं उससे पूरा एक घंटा गुफ़्तुगू करता रहा। उससे साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ और शादी का ख़्वाहिशमंद हूँ। ये सुन कर वह बिल्कुल मुतहय्यर हुई लेकिन उसकी निगाहें जो दूर पहाड़ियों की स्याही और आसमान की नीलाहट को आपस में मिलता हुआ देख रही थीं इस बात की मज़हर थीं कि वो किसी गहरे ख़याल में मुस्तग़रक़ है। कुछ अ’र्सा ख़ामोश रहने के बाद उसने मेरे इसरार पर सिर्फ़ इतना जवाब दिया।

    “अच्छा आप कश्मीर जाएं।”

    ये जवाब इख़्तिसार के बावजूद हौसला अफ़ज़ा था... इस मुलाक़ात के बाद हम दोनों बेतकल्लुफ़ हो गए। अब पहला सा हिजाब रहा। हम घंटों एक दूसरे के साथ बातें करते रहते। एक रोज़ मैंने उस से निशानी के तौर पर कुछ मांगा तो उसने बड़े भोले अंदाज़ में अपने सर के क्लिप उतार कर मेरी हथेली पर रख दिए और मुस्कुरा कर कहा, “मेरे पास यही कुछ है।”

    ये क्लिप मेरे पास अभी तक महफ़ूज़ हैं। ख़ैर कुछ दिनों की तूल तवील गुफ़्तगुओं के बाद मैंने उस की ज़बान से कहलवा लिया कि वो मुझसे शादी करने पर रज़ामंद है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब उस रोज़ शाम को उसने अपने घड़े को सर पर सँभालते हुए अपनी रजामंदी का इज़हार इन अलफ़ाज़ में किया था कि “हाँ मैं चाहती हूँ।” तो मेरी मसर्रत की कोई इंतेहा रही थी।

    मुझे ये भी याद है कि होटल को वापस आते हुए मैं कुछ गाया भी था। उस पुरमसर्रत शाम के चौथे रोज़ जब कि मैं आने वाली साअ’त-ए-सईद के ख़्वाब देख रहा था, यकायक उस मकान की तमाम दीवारें गिर पड़ीं जिनको मैंने बड़े प्यार से उस्तवार किया था।

    बिस्तर में पड़ा था कि सुबह स्यालकोट के एक साहब जो बग़रज़ तबदीली-ए-आब-ओ-हवा बटोत में क़्याम पज़ीर थे और एक हद तक बेगू से मेरी मोहब्बत को जानते थे, मेरी चारपाई पर बैठ गए और निहायत ही मुफ़क्किराना लहजा में कहने लगे,

    “वज़ीर बेगम से आपकी मुलाक़ातों का ज़िक्र आज बटोत के हर बच्चे की ज़बान पर है। मैं वज़ीर बेगम के कैरेक्टर से एक हद तक वाक़िफ़ था। इसलिए कि स्यालकोट में इस लड़की के मुतअ’ल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुका हूँ। मगर यहां बटोत में इसकी तसदीक़ हो गई है। एक हफ़्ता पहले यहां का क़साई इसके मुतअ’ल्लिक़ एक तवील हिकायत सुना रहा था। परसों पान वाला आपसे हमदर्दी का इज़हार कर रहा था कि आप इस्मत बाख़्ता लड़की के दाम में फंस गए हैं। कल शाम को एक और साहब कह रहे थे कि आप टूटी हुई हंडिया ख़रीद रहे हैं। मैंने ये भी सुना है कि बा’ज़ लोग उससे आपकी गुफ़्तगु पसंद नहीं करते। इसलिए कि जब से आप बटोत में आए हैं वो उनकी नज़रों से ओझल हो गई है। मैंने आपसे हक़ीक़त का इज़हार कर दिया है। अब आप बेहतर सोच सकते हैं।”

    इस्मत बाख़्ता लड़की, टूटी हुई हंडिया, लोग उससे मेरी गुफ़्तुगू को पसंद नहीं करते, मुझे अपनी समाअ’त पर यक़ीन आता था। बेगू और... इसका ख़याल ही नहीं किया जा सकता था। मगर जब दूसरे रोज़ मुझे होटल वाले ने निहायत ही राज़दाराना लहजे में चंद बातें कहीं तो मेरी आँखों के सामने तारीक धुन्द सी छा गई।

    “बाबू जी, आप बटोत में सैर के लिए आए हैं मगर देखता हूँ कि आप यहां की एक हुस्न-फ़रोश लड़की की मोहब्बत में गिरफ़्तार हैं। उसका ख़याल अपने दिल से निकाल दीजिए। मेरा उस लड़की के घर आना-जाना है, मुझे ये भी मालूम हुआ है कि आपने उसको कुछ कपड़े भी ख़रीद दिए हैं। आपने यक़ीनन और भी कई रुपये ख़र्च किए होंगे, माफ़ कीजिए मगर ये सरासर हिमाक़त है। मैं आपसे ये बातें हरगिज़ करता क्योंकि यहां बीसियों ऐ’शपसंद मुसाफ़िर आते हैं मगर आपका दिल उन स्याहियों से पाक नज़र आता है। आप बटोत से चले जाएं, इस क़ुमाश की लड़की से गुफ़्तुगू करना अपनी इ’ज़्ज़त ख़तरे में डालना है।”

    ज़ाहिर है कि इन बातों ने मुझे बेहद अफ़सुरदा बना दिया था वो मुझसे सिगरेट, मिठाई और इसी क़िस्म की दूसरी मामूली चीज़ें तलब किया करती थी और मैं बड़े शौक़ और मोहब्बत से उसकी ये ख़्वाहिश पूरी किया करता था। उसमें एक ख़ास लुत्फ़ था। मगर अब होटल वाले की बात ने मेरे ज़ेहन में मुहीब ख़यालात का एक तलातुम बरपा कर दिया। गुज़श्ता मुलाक़ातों के जितने नुक़ूश मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में महफ़ूज़ थे और जिन्हें मैं हर रोज़ बड़े प्यार से अपने तसव्वुर में ला कर एक ख़ास क़िस्म की मिठास महसूस किया करता था, दफ़अ’तन तारीक शक्ल इख़्तियार कर गए।

    मुझे उसके नाम ही से उ’फ़ूनत आने लगी। मैंने अपने जज़्बात पर क़ाबू पाने की बहुत कोशिश की मगर बेसूद। मेरा दिल जो एक कॉलेज के तालिब-ए-इल्म के सीने में धड़कता था, अपने ख़्वाबों की ये बुरी और भयानक ता’बीर देख कर चिल्ला उठा। उसकी बातें जो कुछ अ’र्सा पहले बहुत भली मालूम होती थीं रियाकारी में डूबी हुई मालूम होने लगीं। मैंने गुज़श्ता वाक़ियात, बेगू की नक़्ल-ओ-हरकत, उस की जुंबिश और अपने गिर्द-ओ-पेश के माहौल को पेश-ए-नज़र रख कर अ’मीक़ मुताला’ किया तो तमाम चीज़ें रोशन हो गईं। उसका हर शाम को एक मरीज़ के हाँ दूध लेकर जाना और वहां एक अ’र्सा तक बैठी रहना, बावली पर हर कस-ओ-नाकस से बेबाकाना गुफ़्तुगू, दुपट्टे के बग़ैर एक पत्थर से दूसरे पर उछल कूद, अपनी हमउम्र लड़कियों से कहीं ज़्यादा शोख़ और आज़ाद रवी... “वो यक़ीनन इस्मत बाख़्ता लड़की है।” मैंने ये राय मुरत्तिब तो करली मगर आँसूओं से मेरी आँखें गीली हो गईं। ख़ूब रोया मगर दिल का बोझ हल्का हुआ।

    मैं चाहता था कि एक बार आख़िरी बार उससे मिलूं और उसके मुँह पर अपने तमाम ग़ुस्से को थूक दूँ। यही सूरत थी जिससे मुझे कुछ सुकून हासिल हो सकता था। चुनांचे में शाम को बावली की तरफ़ गया। वो पगडंडी पर अनार की झाड़ियों के पीछे बैठी मेरा इंतिज़ार कर रही थी। उसको देख कर मेरा दिल किसी क़दर कुढ़ा, मेरा हलक़ उस रोज़ की तल्ख़ी कभी फ़रामोश नहीं कर सकता। उसके क़रीब पहुंचा और पास ही एक पत्थर पर बैठ गया। छल्लां, उसकी भैंस और उसका बछड़ा चंद गज़ों के फ़ासले पर बैठे जुगाली कर रहे थे। मैंने गुफ़्तुगू का आग़ाज़ करना चाहा मगर कुछ कह सका।

    ग़ुस्से और अफ़सुर्दगी ने मेरी ज़बान पर क़ुफ़्ल लगा दिया, मुझे ख़ामोश देख कर उसकी आँखों की चमक मांद पड़ गई, जैसे चश्मे के पानी में किसी ने अपने मिट्टी भरे हाथ धो दिए हैं। फिर वो मुस्कुराई, ये मुस्कुराहट मुझे किसी क़दर मस्नूई और फीकी मालूम हुई। मैंने सर झुका लिया और संगरेज़ों से खेलना शुरू कर दिया था। शायद मेरा रंग ज़र्द पड़ गया था। उसने ग़ौर से मेरी तरफ़ देखा और कहा, “आप बीमार हैं?”

    उसका ये कहना था कि मैं बरस पड़ा, “हाँ, बीमार हूँ, और ये बीमारी तुम्हारी दी हुई है, तुम्हीं ने ये रोग लगाया है बेगू! मैं तुम्हारे चाल चलन की सब कहानी सुन चुका हूँ और तुम्हारे सारे हालात से बाख़बर हूँ।”

    मेरी चुभती हुई बातें सुन कर और बदले हुए तेवर देख कर वो भौंचक्का सी रह गई और कहने लगी, “अच्छा, तो मैं अच्छी लड़की नहीं हूँ। आपको मेरे चाल चलन के मुतअ’ल्लिक़ सब कुछ मालूम हो चुका है। मेरी समझ में नहीं आता कि ये आप कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हैं।”

    मैं चिल्लाया, “गोया तुमको मालूम ही नहीं। ज़रा अपने गिरेबान में मुँह डाल कर देखो तो अपनी स्यहकारियों का सारा नक़्शा तुम्हारी आँखों तले घूम जाएगा।” मैं तैश में गया, “कितनी भोली बनती हो, जैसे कुछ जानती ही नहीं। परों पर पानी पड़ने ही नहीं देतीं। मैं क्या कह रहा हूँ भला तुम क्या समझो, जाओ जाओ बेगू, तुमने मुझे सख़्त दुख पहुंचाया है।” ये कहते कहते मेरी आँखों में आँसू डबडबा आए।

    वो भी सख़्त मुज़्तरिब हो गई और जल कर बोल उठी, “आख़िर मैं भी तो सुनूं कि आपने मेरे बारे में क्या क्या सुना है। पर आप तो रो रहे हैं।”

    “हाँ। रो रहा हूँ। इसलिए कि तुम्हारे अफ़्आ’ल ही इतने स्याह हैं कि उनपर मातम किया जाये। तुम पाकबाज़ों की क़दर क्या जानो। अपना जिस्म बेचने वाली लड़की मोहब्बत क्या जाने। तुम...तुम सिर्फ़ इतना जानती हो कि कोई मर्द आए और तुम्हें अपनी छाती से भींच कर चूमना चाटना शुरू कर दे और जब सैर हो जाये तो अपनी राह ले। क्या यही तुम्हारी ज़िंदगी है।”

    मैं ग़ुस्से की शिद्दत से दीवाना हो गया था। जब उसने मेरी ज़बान से इस क़िस्म के सख़्त कलमात सुने तो उसने ऐसा ज़ाहिर किया जैसे उसकी नज़र में ये सब गुफ़्तुगू एक मुअ’म्मा है। उस वक़्त तैश की हालत में मैंने उसकी हैरत को नुमाइशी ख़याल किया और एक क़हक़हा लगाते हुए कहा, “जाओ! मेरी नज़रों से दूर हो जाओ, तुम नापाक हो।”

    ये सुन कर उस ने डरी हुई आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा, “आपको क्या हो गया है?”

    “मुझे क्या हो गया... क्या हो गया है।” मैं फिर बरस पड़ा, “अपनी ज़िंदगी की स्याहकारियों पर नज़र दौड़ाओ... तुम्हें सब कुछ मालूम हो जाएगा। तुम मेरी बात इसलिए नहीं समझती हो कि मैं तुमसे शादी करने का ख़्वाहिशमंद था। इसलिए कि मेरे सीने में शहवानी ख़यालात नहीं, इसलिए कि मैं तुम से सिर्फ़ मोहब्बत करता हूँ। जाओ मुझे तुमसे सख़्त नफ़रत है।”

    जब मैं बोल चुका तो उसने थूक निगल कर अपने हलक़ को साफ़ किया और थरथराई हुई आवाज़ में कहा, “शायद आप ये ख़याल करते होंगे कि मैं जानबूझ कर अंजान बन रही हूँ। मगर सच जानिए मुझे कुछ मालूम नहीं आप क्या कह रहे हैं। मुझे याद है कि एक शाम आप सड़क पर से गुज़र रहे थे, आपने मेरी तरफ़ देखा था और मुस्कुरा दिए थे। यहां बीसियों लोग हम लड़कियों को देखते हैं और मुस्कुरा कर चले जाते हैं। फिर आप मुतवातिर बावली की तरफ़ आते रहे। मुझे मालूम था आप मेरे लिए आते हैं मगर इसी क़िस्म के कई वाक़ए’ मेरे साथ गुज़र चुके हैं। एक रोज़ आपने मेरे साथ बातें कीं और इस के बाद हम दोनों एक दूसरे से मिलने लगे। आपने शादी के लिए कहा, मैं मान गई। मगर इससे पहले इस क़िस्म की कई दरख़्वास्तें सुन चुकी हूँ। जो मर्द भी मुझसे मिलता है दूसरे तीसरे रोज़ मेरे कान में कहता है, “बेगू देख में तेरी मोहब्बत में गिरफ़्तार हूँ। रात दिन तू ही मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बसी रहती है। आपने भी मुझसे यही कहा। अब बताईए मोहब्बत क्या चीज़ है। मुझे क्या मालूम कि आपने दिल में क्या छुपा रखा है। यहां आप जैसे कई लोग हैं जो मुझसे यही कहते हैं, “बेगू तुम्हारी आँखें कितनी ख़ूबसूरत हैं। जी चाहता है कि सदक़े हो जाऊं। तुम्हारे होंट किस क़दर प्यारे हैं, जी चाहता है इनको चूम जाऊं।”

    वो मुझे चूमते रहे हैं क्या ये मोहब्बत नहीं है? कई बार मेरे दिल में ख़याल आया है कि मोहब्बत कुछ और ही चीज़ है मगर मैं पढ़ी-लिखी नहीं, इसलिए मुझे क्या मालूम हो सकता है। मैंने क़ायदा पढ़ना शुरू किया मगर छोड़ दिया। अगर मैं पढ़ूं तो फिर छल्लां और उसके बछड़े का पेट कौन भरे। आप अख़बार पढ़ लेते हैं इसलिए आपकी बातें बड़ी होती हैं। मैं कुछ नहीं समझ सकती, छोड़िए इस क़िस्से को। आईए कुछ और बातें करें। मुझे आपसे मिल कर बड़ी ख़ुशी होती है। मेरी माँ कह रही थीं कि बेगू तू हैट वाले बाबू के पीछे दीवानी हो गई है।”

    मेरी नज़रों के सामने से वो तारीक पर्दा उठने लगा था जो इस अंजाम का बाइ’स था। मगर दफ़अ’तन मेरे जोश और ग़ुस्से ने फिर उसे गिरा दिया। बेगू की गुफ़्तुगू बेहद सादा और मासूमियत से पुर थी मगर मुझे उसका हर लफ़्ज़ बनावट में लिपटा नज़र आया। मैं एक लम्हा भी उसकी अहमियत पर ग़ौर किया।

    “बेगू, मैं बच्चा नहीं हूँ कि तुम मुझे चिकनी चुपड़ी बातों से बेवक़ूफ़ बनालोगी।” मैंने ग़ुस्से में उससे कहा, “ये फ़रेब किसी और को देना। कहते हैं कि झूट के पांव नहीं होते। तुमने अभी अभी अपनी ज़बान से इस बात का ए’तराफ़ किया है, अब मैं क्या कहूं।”

    “नहीं, नहीं कहिए!” उसने कहा।

    “कई लोग तुम्हारे मुँह को चूमते रहे हैं। तुम्हें शर्म आनी चाहिए!”

    “हाय आप तो समझते ही नहीं। अब मैं क्या झूट बोलती हूँ। मैं ख़ुद थोड़ा ही उनके पास जाती हूँ और मुँह बढ़ा कर चूमने को कहती हूँ। अगर आप उस रोज़ मेरे बालों को चूमना चाहते जबकि आप इन की तारीफ़ कर रहे थे, तो क्या मैं इनकार कर देती? मैं किस तरह इनकार कर सकती हूँ, मुझे छल्लां बहुत प्यारी लगती है और मैं हर रोज़ उसको चूमती हूँ। इसमें क्या हर्ज है। मैं चाहती हूँ कि लोग मेरे बालों, मेरे होंटों और मेरे गालों की तारीफ़ करें, इससे मुझे बड़ी ख़ुशी होती है ख़बर नहीं क्यों?

    मैं सुबह सवेरे उठती हूँ और छल्लां को लेकर घास चराने के लिए बाहर चली जाती हूँ, दोपहर को रोटी खा कर फिर घर से निकल आती हूँ। शाम को पानी भरती हूँ। हर रोज़ मेरा यही काम है, मुझे याद है कि आपने मुझसे कई मर्तबा कहा था कि मैं पानी भरने आया करूं, भैंस चराया करूं। शायद आप इसी वजह से नाराज़ हो रहे हैं। मगर ये तो बताईए कि मैं घर पर रहूं तो फिर आप मुलाक़ात क्योंकर कर सकेंगे? मैंने सुना है कि पंजाब में लड़कियां घर से बाहर नहीं निकलतीं मगर हम पहाड़ी लोग हैं हमारा यही काम है।”

    “तुम्हारा यही काम है कि हर रहगुज़र से लिपटना शुरू कर दो। तुम पहाड़ी लोगों के चलन मुझसे छुपे हुए नहीं, ये तक़रीर किसी और को सुनाना। घर पर रहो या बाहर रहो। अब मुझे इससे कोई सरोकार नहीं। इन पहाड़ियों में रह कर जो सबक़ तुमने सीखा है वो मुझे पढ़ाने की कोशिश करो”

    “आप बहुत तेज़ होते जा रहे हैं बहुत चल निकले हैं।” उसने क़दरे बिगड़ कर कहा, “मालूम होता है लोगों ने आपके बहुत कान भरे हैं। मुझे भी तो पता लगे कि वो कौन “मरन जोगे” हैं जो मेरे मुतअ’ल्लिक़ आपको ऐसी बातें सुनाते रहे हैं। आप ख़्वाह मख़्वाह इतने गर्म होते जा रहे हैं। ये सच है कि मैं मर्दों के साथ बातें करती हूँ और उनसे मिलती हूँ मगर...” ये कहते हुए उसके गाल सुर्ख़ हो गए। मगर मैंने उसकी तरफ़ ध्यान दिया।

    एक लम्हा ख़ामोश रहने के बाद वो फिर बोली, “आप कहते हैं कि मैं बुरी लड़की हूँ, ये ग़लत है। मैं पगली हूँ, सचमुच पगली हूँ। कल आपके चले जाने के बाद में पत्थर पर बैठ कर देर तक रोती रही। जाने क्यों? ऐसा कई दफ़ा हुआ है कि मैं घंटों रोया करती हूँ। आप हंसेंगे मगर इस वक़्त भी मेरा जी चाहता है कि यहां से उठ भागूं और इस पहाड़ी की चोटी पर भागती हुई चढ़ जाऊं और फिर कूदती फांदती नीचे उतर जाऊं। मेरे दिल में हर वक़्त एक बेचैनी सी रहती है। भैंस चराती हूँ, पानी भरती हूँ, लकड़ियां काटती हूँ लेकिन ये सब काम में ऊपरे दिल से करती हूँ। मेरा जी किसी को ढूंढता है। मालूम नहीं किसको... मैं दीवानी हूँ।”

    बेगू की ये अ’जीब-ओ-ग़रीब बातें जो दर-हक़ीक़त उसकी ज़िंदगी का एक निहायत उलझा हुआ बाब थीं और जिसे बग़ौर मुताला करने के बाद सब राज़ हल हो सकते थे, उस वक़्त मुझे किसी मुजरिम का ग़ैरमरबूत बयान मालूम हुईं। बेगू और मेरे दरमियान इस क़दर तारीक और मोटा पर्दा हाइल हो गया था कि हक़ीक़त की नक़ाबकुशाई बहुत मुश्किल थी।

    “तुम दीवानी हो।” मैंने उससे कहा, “क्या मर्दों के साथ बैठ कर झाड़ियों के पीछे पहरों बातें करते रहना भी इस दीवानगी ही की एक शाख़ है? बेगू, तुम पगली हो मगर अपने काम में आठों गांठ होशियार!”

    “मैं बातें करती हूँ, उनसे मिलती हूँ, मैंने इससे कब इनकार किया है। अभी अभी मैंने आपसे अपने दिल की सच्ची बात कही तो आपने मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया। अब अगर मैं कुछ और कहूं तो इससे क्या फ़ायदा होगा। आप कभी मानेंगे ही नहीं।”

    “नहीं, नहीं, कहो, क्या कहती हो, तुम्हारा नया फ़ल्सफ़ा भी सुन लूं।”

    “सुनिए फिर।” ये कह कर उसने थकी हुई हिरनी की तरह मेरी तरफ़ देखा और आह भर कर बोली, “ये बातें जो मैं आज आपको सुनाने लगी हूँ मेरी ज़बान से पहले कभी नहीं निकलीं। मैं ये आपको भी सुनाती, मगर मजबूरी है। आप अ’जीब-ओ-ग़रीब आदमी हैं। मैं बहुत से लोगों से मिलती रही हूँ। मगर आप बिल्कुल निराले हैं। शायद यही वजह है कि मुझे आप से...”

    वो हिचकिचाई... “हाँ आपसे प्यार हो गया है। आपने कभी मुझसे ग़ैर बात नहीं कही। हालाँकि मैं जिससे मिलती रही हूँ वो मुझसे कुछ और ही कहता था। मेरी अम्मां जानती है कि मैं घर में हर वक़्त आपही की बातें करती रहती हूँ, मेरा मुँह थकता ही नहीं। आपने नहीं कहा पर मैंने गाहकों के पास दूध ले जाना छोड़ दिया। लोगों से बातें करना छोड़ दीं। पानी भरने के लिए भी ज़्यादा छोटी बहन ही को भेजती रही हूँ। आपके आने से पहले में लोगों से मिलती रही हूँ। अब मैं आपको क्या बताऊं कि मैं उनसे क्यों मिलती थी... मुझे कोई मर्द भी बुलाता तो मैं उससे बातें करने लगती थी।

    इसलिए... नहीं, नहीं मैं नहीं बताऊंगी... मेरा दिल जो चाहता था वो उन लोगों के पास नहीं था। मैं बुरी नहीं, अल्लाह की क़सम, बेगुनाह हूँ, ख़ुदा मालूम लोग मुझे बुरा क्यों कहते हैं। आप भी मुझे बुरा कहते हैं जिस तरह आपने आज मेरे मुँह पर इतनी गालियां दी हैं अगर आपके बजाय कोई और होता तो मैं उसका मुँह नोच लेती मगर आप... अब मैं क्या कहूं, मैं बहुत बदल गई हूँ। आप बहुत अच्छे आदमी हैं। मैं ख़याल करती थी कि आप मुझे कुछ सिखाएंगे, मुझे अच्छी अच्छी बातें सुनाएंगे। लेकिन आप मुझसे ख़्वाह मख़्वाह लड़ रहे हैं। आपको क्या मालूम कि मैं आपकी कितनी इ’ज़्ज़त करती हूँ। मैंने आपके सामने कभी गाली नहीं दी। हालाँकि हमारे घर सारा दिन गाली गलौच होती रहती है।”

    मेरी समझ में कुछ आया कि वो क्या कह रही है? डाक्टर साहब! इस पहाड़ी लड़की की गुफ़्तुगू किस क़दर सादा थी। मगर अफ़सोस है कि उस वक़्त मेरे कानों में रूई ठुँसी हुई थी। उसके हर लफ़्ज़ से मुझे इस्मत फ़रोशी की बू रही थी। मैं कुछ समझ सका।

    “बेगू! तुम हज़ार क़स्में खाओ। मगर मुझे यक़ीन नहीं आता। अब जो तुम्हारे जी में आए करो। मैं कल बटोत छोड़ कर जा रहा हूँ। मैंने तुमसे मोहब्बत की, मगर तुमने उस की क़दर की। तुमने मेरे दिल को बहुत दुख दिया है... ख़ैर अब जाता हूँ, मुझे और कुछ नहीं कहना।”

    मुझे जाता देख कर वो सख़्त मुज़्तरिब हो गई और मेरा बाज़ू पकड़ कर और फिर उसे फ़ौरन डरते हुए छोड़ कर थर्राई हुई आवाज़ में सिर्फ़ इस क़दर कहा, “आप जा रहे हैं?”

    मैंने जवाब दिया, “हाँ, जा रहा हूँ ताकि तुम्हारे चाहने वालों के लिए मैदान साफ़ हो जाये।”

    “आप जाईए, अल्लाह की क़सम मेरा कोई चाहने वाला नहीं।” ये कहते हुए उसकी आँखें नमनाक हो गईं, “न जाईए, जाईए न...” आख़िरी अलफ़ाज़ उसकी गुलूगीर आवाज़ में दब गए। उसका रोना मेरे दिल पर कुछ असर कर सका। मैं चल पड़ा। मगर उसने मुझे बाज़ू से पकड़ लिया और रोती हुई आवाज़ में कहा, “आप ख़फ़ा क्यों हो गए हैं। मैं आइन्दा किसी आदमी से बात करूंगी। अगर आपने मुझे किसी मर्द के साथ देखा तो आप इस छड़ी से जितना चाहिए पीट लीजिएगा। आईए घर चलें। मैं आपके लिए हुक़्क़ा ताज़ा करके लाऊंगी।”

    मैं ख़ामोश रहा और उस का हाथ छोड़कर फिर चल पड़ा। उस वक़्त बेगू से एक मिनट की गुफ़्तगू करना भी मुझे गिरां गुज़र रहा था। मैं चाहता था कि वो लड़की मेरी नज़रों से हमेशा के लिए ओझल हो जाये। मैंने बमुश्किल दो गज़ का फ़ासला तय किया होगा कि वो मेरे सामने खड़ी हुई। उसके बाल परेशान थे, आँखों के डोरे सुर्ख़ और उभरे हुए थे, सीना आहिस्ता आहिस्ता धड़क रहा था।

    उसने पूछा, “क्या आप वाक़ई जा रहे हैं?”

    मैंने तेज़ी से जवाब दिया, “तो और क्या झूट बक रहा हूँ।”

    “जाईए।”

    मैंने उसकी तरफ़ देखा। उसकी आँखों से अश्क रवां थे और गाल आँसूओं की वजह से मैले हो रहे थे मगर उसकी आँखों में एक अ’जीब क़िस्म की चमक नाच रही थी।

    “जाईए।” ये कह कर वो उलटे पांव मुड़ी। उसका क़द पहले से लंबा हो गया था।

    मैंने नीचे उतरना शुरू कर दिया। थोड़ी दूर जा कर मैंने झाड़ियों के पीछे से रोने की आवाज़ सुनी। वो रो रही थी। वो थर्राई हुई आवाज़ अभी तक मेरे कानों में आरही है। ये है मेरी दास्तान डाक्टर साहब, मैंने उस पहाड़ी लड़की की मोहब्बत को ठुकरा दिया। इस ग़लती का एहसास मुझे पूरे दो साल बाद हुआ जब मेरे एक दोस्त ने मुझे ये बताया कि बेगू ने मेरे जाने के बाद अपने शबाब को दोनों हाथों से लुटाना शुरू कर दिया और दिक़ के मरीज़ों से मिलने की वजह से वो ख़ुद उसका शिकार हो गई।

    फिर बाद अज़ां मुझे मालूम हुआ कि इस मर्ज़ ने बिल आख़िर उसे क़ब्र की गोद में सुला दिया... उस की मौत का बाइ’स मेरे सिवा और कौन हो सकता है। वो ज़िंदगी की शाहराह पर अपना रास्ता तलाश करती थी मगर मैं उसको भूल भुलैय्यों में छोड़कर भाग आया जिसका नतीजा ये हुआ कि वो भटक गई, मैं मुजरिम था। चुनांचे मैंने अपने लिए वही मौत तजवीज़ की जिससे वो दो-चार हुई। वो वज़न जो मैं पाँच साल अपनी छाती पर उठाए फिरता रहा हूँ, ख़ुदा का शुक्र है कि अब हल्का हो गया है।

    मैं मरीज़ की दास्तान ख़ामोशी से सुनता रहा। वो बोल चुका तो फिर भी ख़ामोश रहा। मैं नहीं चाहता था कि उसके जज़्बात पर रायज़नी करूं। चुनांचे वहां से उठ कर चला गया। मुझे कई मरीज़ों की दास्तानें सुनने का इत्तफ़ाक़ हुआ है मगर ये निहायत अ’जीब-ओ-ग़रीब और पुरअसर दास्तान थी। गो मरीज़ बीमारी की वजह से हड्डियों का ढांचा रह गया था, मगर हैरत है कि उसने अपने तवील बयान को किस तरह जारी रखा।

    सुबह के वक़्त मैं उसका टेम्प्रेचर देखने के लिए आया, मगर वो मर चुका था। सफ़ेद चादर ओढ़े वो बड़े सुकून से सो रहा था।

    जब उसको ग़ुस्ल देने लगे तो हस्पताल के एक नौकर ने मुझे बुलाया और कहा, “डाक्टर साहब इस की मुट्ठी में कुछ है।” मैंने उसकी बंद मुट्ठी को आधा खोल कर देखा, लोहे के दो क्लिप थे। उसकी बेगू की यादगार!

    “इनको निकालना नहीं, ये इसके साथ ही दफ़न होंगे।” मैंने ग़ुस्ल देने वालों से कहा और दिल में ग़म की एक अ’जीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत लिए दफ़्तर चला गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : منٹو کےافسانے

    यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए