Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

क़ुर्बानी का जानवर

सय्यद मोहम्मद अशरफ़

क़ुर्बानी का जानवर

सय्यद मोहम्मद अशरफ़

MORE BYसय्यद मोहम्मद अशरफ़

    ज़फ़र भौंचक्का बैठा था। आयशा ने ​िसवय्यों का प्याला हाथ में देते हुए पूछा, ‘‘फिर क्या कहा मैडम ने?’’

    ‘‘कहा कि लड़का 14-13 साल का हो। किसी अच्छे घर का हो, घरेलू काम-काज का थोड़ा-बहुत तजुर्बा हो। आँख मिलाता हो। साफ़-सुथरा रहता हो, तनख़्वाह ज़ियादा माँगे। नाग़ा करे। महीने पीछे पगार और रोज़ाना तीन वक़्त का खाना भी तो मिलेगा।’’

    ‘‘फिर?’’

    ‘‘फिर क्या?’’

    ‘‘मतलब कहीं तलाश किया?’’

    ‘‘तलाश का कौन सा वक़्त मिला। बक़र-ईद की नमाज़ के बाद सीधा साहब को सलाम करने चला गया था, वहीं से चला रहा हूँ। नौकर इतनी आसानी से थोड़े ही मिल पाते हैं। फिर इतनी ज़ियादा शर्तें। मुझे तो बहुत मुश्किल नज़र आता है। ‘‘ज़फ़र की आवाज़ भर्रा गई।

    ‘‘आप इतने परेशान क्यों हैं। हम लोग अपना त्योहार क्यों ख़राब करें। एक आध हफ़्ते में तलाश कर लेंगे।’’ आयशा ने दिलासा दिया।

    ‘‘मैडम ने कहा है परसों तक इन्तिज़ाम हो जाना चाहिए। पुरानी वाली बाई अपने वतन वापस चली गई है।’’ ज़फ़र ने जवाब दिया।

    ‘‘एक आध हफ़्ते घर का काम ख़ुद नहीं सँभाल पाएँगी क्या... इतनी नाज़ुक हैं?’’ आयशा औरत बन गई।

    ‘‘तुम बात समझती नहीं हो। बिला-वज्ह की बह्स करती हो। मकान के लिए अप्लाई किया है। आयशा! साहब दो-चार दिन के अन्दर फ़ैसला करने वाले हैं कि मकान किस को मिलेगा।’’ ज़फ़र ने समझाया। मकान का ज़िक्र सुन कर आयशा के माथे की सिलवटें खुल गईं। आँखों में चमक पैदा हुई, क़रीब बैठ कर पूछा।

    ‘‘ज़फ़र तुमने वो मकान देखा है। कितने कमरे हैं?’’

    ‘‘दो रूम, हॉल, किचन। एक छोटी-सी बालकनी भी।’’

    ‘‘बालकनी भी।’’ सच-मुच? आयशा के मुँह से बस इतना ही निकला और उसने वहीं बैठे-बैठे निगाहें घुमा कर पूरे कमरे का जायज़ा लिया। चौदह बाई बारह का चौथे माले का तारीक कमरा। टूटे शीशे की खिड़की के पास डबल बेड... जिसके नीचे एक-दूसरे से मिला कर रखे गए ट्रंक और सूट केस। दरवाज़े के पास मेज़ पर रखा टी.वी.। उसी मेज़ के नीचे दरी के चौकोर टुकड़े पर बच्चों के कोर्स की किताबें-कापियाँ, कमरे को बीच से दो करती हुई अलगनी जिस पे लटके हुए हर साइज़ के गीले-गीले कपड़े, बच्चों को डाँटते वक़्त उनका चेहरा देखने के लिए जिनको दाईं-बाईं सरकाना पड़ता है। दरवाज़े के पीछे बड़ों और बच्चों के जूते-चप्पलें जिनकी वज्ह से दरवाज़ा पूरा नहीं खुल पाता था। ज़रूरियात के लिए दूसरे माले पर उतर कर मुशतर्का ग़ुस्ल-ख़ाना और लैट्रीन।

    बाथरूम का ख़याल आते ही उसने निगाहें घुमाना बन्द करके ज़ेह्न दौड़ाना शुरू कर दिया था। दो कमरे, हॉल और किचन अलग और उस पर से एक बालकनी भी जहाँ घर-भर के कपड़े सुखाए जा सकते हैं। बम्बई में तो ये ऐश नहीं अय्याशी होगी। किचेन के प्लेटफ़ॉर्म पर चूल्हा रखा हो तो मकान घर लगने लगता है। वहीं के वहीं बरतन धोने के लिए नल भी ज़रूर होगा। सभी सरकारी घरों में होता है। दो माले नीचे बरतन लाद कर नहीं उतरना होगा। हॉल को ड्राइंग रूम बनाएँगे जैसा लखनऊ में रकाब-गंज वाले मकान में बनाया था। अपना फ़र्नीचर और दीगर सामान भी मँगा लेंगे जो उसी मकान के एक कमरे में बन्द पड़ा सड़ रहा होगा और जिसे हटाने के लिए मालिक मकान का एक और नए किराए-दार के तीन ख़त चुके हैं।

    एक कमरा बच्चों का। वहीं उनकी मेज़-कुर्सी किताबें-कापियाँ और कपड़ों के ट्रंक। दूसरे कमरे में सिर्फ़ एक अलमारी और डबल-बेड। आयशा ने चुपके से निगाहें उठा कर शौक़ के साथ अपने अधेड़ होते शौहर को देखा। बड़े होते बच्चों की मौजूदगी में तो ज़फ़र के पास बैठने तक में हिजाब आता है। ज़फ़र ने कुछ सोचते-सोचते निगाहें उठाईं। बीवी के रंग बदलते चेहरे को देखा, मुस्कुराने की कोशिश की और बोला, ‘‘मैं भी वही सब कुछ सोच रहा हूँ इशू। मगर ख़ाली सोचने से क्या होगा।’’

    ऐसा करते हैं आज बक़र-ईद में किसी से मिलने नहीं जाएँगे। आयशा बोली। बच्चों को पड़ोस में छोड़ कर शह्‌र का एक चक्कर लगाते हैं, कोई कोई लड़का मिल ही जाएगा। आप बकरा भी नहीं लाए।’’

    ‘‘वक़्त ही कहाँ मिला आयशा, बताया तो साहब के यहाँ से सीधा घर ही रहा हूँ। वैसे भी हमने पिछले साल कब क़ुर्बानी दी थी।’’

    ‘‘इसका नतीजा देख तो लिया। अच्छे-भले लखनऊ में बैठे थे। अचानक आप को बम्बई दे मारा जहाँ ये खटोले बराबर का कमरा रहने को मिला है।’’ ज़फ़र चुप रहा। आयशा को ये वार ख़ाली जाता नज़र आया, उसने कुछ बुलन्दी से मुआमला फिर अपने हाथ में लिया।

    ‘‘आप साहब-ए-निसाब हैं?’’

    ‘‘तुम्हारे ज़ेवर और सरकारी फ़ण्ड की वज्ह से।’’

    ‘‘हैं तो?’’

    ‘‘हाँ हों तो।’’

    ‘‘साहब-ए-निसाब पर क़ुर्बानी फ़र्ज़ है?’’

    ‘‘हाँ।’’ ज़फ़र ने मरी-मरी आवाज़ में जवाब दिया।

    ये फ़र्ज़ पूरा हो तो आख़िरत में मालूम है क्या होता है?

    क्या होता है? ज़फ़र ने बन कर पूछा। कल ही इस सिलसिले में आयशा ने क़ुर्बानी की अहमियत, क़ुर्बानी के जानवर की तन्दुरुस्ती, अदम-ए-अदाएगी की सज़ा, पुल-सिरात की बारीकी और तेज़ी, दोज़ख़ की आग और क़यामत के अज़ाब का नक़्शा तफ़सीली जुज़इयात के साथ खींचा था।

    ज़फ़र ने देखा एक बड़े से मैदान में हज़ार-हा-हज़ार ख़िल्क़त जमा है। रेत के एक बड़े से मैदान में एक क़द-ए-आदम तराज़ू रखा है। उसके एक पलड़े में उसके नेक आमाल हैं और दूसरे में बद-आमालियाँ। दूसरा पलड़ा बोझ के सबब ज़मीन से लगा जा रहा है। और वहीं सबके दरमियान मगर सब से जुदा ख़ुदा-ए-ज़ुलजलाल एक नूर के पैकर की सूरत में जल्वा-गर है और उस पैकर पर निगाहें नहीं ठहर रही हैं। वहीं नज़दीक ही नेक आमाल का मोलिन सफ़ेद परों वाला फ़रिश्ता शर्मिन्दा खड़ा ज़फ़र को देख रहा है और उधर सुर्ख़ परों वाला फ़रिश्ता बुलन्द आवाज़ में ऐलान कर रहा है कि ज़रीना ख़ातून के बेटे ज़फ़र अहमद ने फ़लाँ सन में साहब-ए-निसाब होने के बावुजूद बक़र-ईद के मौक़े पर क़ुर्बानी नहीं दी। इसने बचपन में सुन रखा था कि क़यामत में लोगों को उन की माँ के नाम से पुकारा जाएगा।

    सुर्ख़ फ़रिश्ते के इस ऐलान पर उसके सारे दोस्त अहबाब खड़े-खड़े ठट्ठे लगा रहे हैं, फिर वो दोस्त-अहबाब मज़बूत ऊँटों, तन्दुरुस्त गायों-भैंसों और ख़ूबसूरत बकरों और मेंढों पर बैठ कर मुस्कुराते हुए फ़ख़्रिया अन्दाज़ से पुल-सिरात पार कर रहे हैं। और जब वो आयशा और बच्चों को ले कर पुल पार करने के लिए आगे बढ़ा तो पुल को बाल से ज़ियादा बारीक और तलवार से ज़ियादा तेज़ पाया। पहला क़दम रखते ही सबके बदन बीच से दो हो गये और नीचे उस आग में गिर कर अंगारों की तरह भड़कने लगे जिसके शोले आसमान से बातें कर रहे थे। उसके दोस्त-अहबाब पीछे मुड़ कर नीचे देखते हुए आपस में कह रहे हैं कि अगर ज़फ़र ने क़ुर्बानी दी होती तो इस वक़्त वो भी उसी जानवर को सवारी बना कर इत्मीनान से ये पुल पार कर रहा होता।

    चलो पहले लड़के को तलाश कर लाएँ। आयशा उसे वहाँ से खींच लाई, क़ुर्बानी का वक़्त तो तीन दिन तक रहता है।

    दोपहर से घूमते-घूमते शाम हो गई। कई बसें बदलीं। दो दफ़ा टैक्सी भी करना पड़ी मगर कोई नतीजा नहीं निकला। वो दोनों ग़ुरूब होते सूरज के सामने हाजी अली की दरगाह के मुक़ाबिल समुन्दर की फ़सील पर ख़ामोश बैठे थे। 12-13 बरस का एक लड़का भीक माँगता उनके पास आया। ज़फ़र ने गर्दन मोड़ कर देखा और बेज़ारी से मुँह फेर लिया मगर आयशा की आँखें चमकने लगीं।

    सुनो ज़फ़र इससे बात करें?

    ज़फ़र ने उसे फिर देखना ज़रूरी समझा। वो मैले-मैले कपड़े पहने हाथों में गन्दी-गन्दी पट्टियाँ बाँधे, ख़ाली-ख़ाली आँखें लिए उनके सामने खड़ा था। औरत-मर्द को आपस में सरगोशियाँ करते सुन कर उसे भीक मिलने की उम्मीद बँध गई थी।

    काम करोगे घर का...? इससे पहले कि वो कोई जवाब दे। वहाँ तीन वक़्त का खाना मिलेगा। बिजली का पंखा हर वक़्त चलेगा। नहाने को मिलेगा। साफ़ कपड़े भी। उसकी गर्दन पर जमे मैल को देख कर और मैडम के उसी उम्र के बच्चों का ख़याल कर के उसने ये बात कही थी। लड़के ने उसकी बातें बहुत मायूसी से सुनीं।

    नईं। अपुन को इसी जगह पहुँच धन्दा करना है। अपने वाले सब लोग इधरिच हैं। अम्माँ, बाप-बहनें सब। वो दोनों हक्का-बक्का उसे देखते रहे और वो आगे बढ़ कर किसी दूसरे आदमी से धन्दा करने लगा। वो दोनों बहुत ना-उम्मीद घर वापस आए और बच्चों को उन हरकतों पर डाँट कर सो गए, जो उनके ख़याल के मुताबिक़ उनकी ग़ैर-मौजूदगी में बच्चों ने की होंगी। दूसरे दिन ऑफ़िस में साहब ने नौकर के बारे में पूछा, आप कल तक इ​िन्तज़ार करें सर। तक़रीबन सारा इन्तिज़ाम हो चुका है।

    वो घबराहट में झूट बोल गया। वो ऑफ़िस के वक़्त से पहले ही घर वापस गया। आयशा दरवाज़े पर उसकी मुन्तज़िर थी।

    बताइए अन्दर कौन है?

    क्या कोई मेहमान आया है? उसने घबरा कर पूछा।

    मेहमान ही समझ लीजिए। वो जल्दी से कमरे में दाख़िल हुआ। कमरे के वस्त में बड़ी मेज़ के पाए से बँधा एक सियाह बकरा दोनों टाँगें जोड़े, सर न्योढ़ाए, सींग ताने उसका मुन्तज़िर था।

    ये तुमने अच्छा किया। मुझे तो वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था। ज़फ़र ने इत्मीनान का साँस लेते हुए कहा फिर बकरे का भरपूर जाइज़ा लिया। क़रीब कर उसके दोनों कान ग़ौर से देखे और उनको छुआ। फिर उसकी दुम देखी फिर आगे कर उसके सींगों का ब-ग़ौर मुआइना किया। फिर पीछे जा कर उसकी टाँगें एक-एक करके देखीं।

    क्या देख रहे हैं इतने ग़ौर से? आयशा ने पूछा।

    कोई उज़्व, कोई हिस्सा कटा-फटा, टूटा-फूटा नहीं होना चाहिए। जानवर मुकम्मल तौर से तन्दुरुस्त होना चाहिए। ये हमारी पुल-सिरात की सवारी है आयशा।

    बे-शक। आयशा ने ख़ुदा-तरसी वाले अन्दाज़ में ताईद की। दोनों बच्चे बकरे को गेहूँ के दाने और रोटी के टुकड़े खिलाने लगे।

    ऑफ़िस में साहब ने नौकर के बारे में पूछा तो मेरे मुँह से निकल गया कि तक़रीबन सारा इन्तिज़ाम हो गया है। मैं झूट बोलना नहीं चाह रहा था मगर अंजाने में ऐसा हो गया।

    झूट की क्या बात है। हम लोग कल अपना त्योहार छोड़ कर शह्‌र भर में मारे-मारे नहीं फिरते रहे क्या? क़ुर्बानी तक नहीं कर पाए। हमारी निय्यत तो वही रही ना कि नौकर मिल जाए।

    नियत का सवाब सिर्फ़ अल्लाह मियाँ वाले कामों में मिलता है। साहब और मैडम को नौकर चाहिए। नौकर तलाश करने की नियत नहीं।

    तुम कल की छुट्टी ले लो। कल दिन भर में कोई कोई मिल ही जाएगा। आयशा ने उसे मशवरा दिया। ज़फ़र को उसकी बात माक़ूल लगी। नीचे जा कर उसने पब्लिक बूथ से साहब के मकान पर फ़ोन किया। दूसरी तरफ़ मैडम ने फ़ोन उठाया। वो घबरा गया।

    दर-अस्ल बात ये है मैडम कि लड़के को उसके घर से लाने में बहुत वक़्त लग जाएगा। इसलिए साहब से कल की छुट्टी की बात करनी थी।

    आप छुट्टी की फ़िक्र करें बस नौकर पाँच बजे शाम तक ज़रूर पहुँचा दें। आप को याद है मैंने उसके बारे में क्या-क्या बताया था। ज़ियादा सैलरी तो नहीं माँगता है?

    जी हाँ वैसा ही तलाश किया है। जी नहीं, पगार ज़ियादा नहीं है।

    वो झूट पर झूट बोलता जा रहा था। साहब को मेरी मकान वाली बात ज़रूर याद दिला दीजिएगा प्लीज़।

    मैं कह दूँगी मगर साहब आज कल आप से बहुत ज़ियादा ख़ुश नज़र नहीं रहे। मैडम ने जज़्बे से आरी आवाज़ में उसे मुत्तला किया। इस इत्तिला से उसका दिल बुझ गया। वो चुप-चाप खड़ा रहा। मैडम को उसकी ख़ामोशी पर शायद रहम गया।

    कल जब आप नौकर ले कर आएँगे तो शायद साहब ख़ुश हो जाएँ। उसी मौक़े पर आप के जाने के बाद मैं रिकमंड कर दूँगी।

    थैंक यू। थैंक यू वेरी मच मैडम। फ़ोन रख कर जब वो घर में दाख़िल हुआ तो ना-उम्मीद नहीं था। सुब्ह 8 बजे से 4 बजे तक तलाश करने पर नौकर ज़रूर मिल जाएगा।

    उसे क़साई के यहाँ जा कर ज़ब्ह करा दीजिए। कल मालूम नहीं वक़्त मिले मिले।

    तुम फ़िक्र मत करो आयशा। वैसे भी अब जोगेश्वरी तक जाते-जाते रात हो जाएगी। कल शाम तक बहुत वक़्त पड़ा है। ज़फ़र ने उसे थपथपाया।

    बस कल मग़रिब तक का वक़्त है इसकी क़ुर्बानी का। फिर क़ुबूल नहीं होगी। आप जानते हैं कि क़यामत के रोज़ सफ़ेद परों वाला फ़रिश्ता हमारी वज्ह से शर्मिन्दा होगा और सुर्ख़ परों वाला फ़रिश्ता हमारे आमाल की ख़बर फ़ौरन अल्लाह तआला को देगा। आयशा ने फिर आख़िरत का नक़्शा खींचना शुरू कर दिया।

    तुम बे-फ़िक्र रहो आयशा। ज़फ़र ने बकरे को कोने में बाँधते हुए जवाब दिया। और उसकी फैलाई हुई गन्दगी को समेट कर आयशा ने बाहर रखे कूड़े दान में डाल दिया और इधर-उधर देख कर उस पर आज का अख़बार ढक दिया।

    सुब्ह आठ बजे ऑटो में बैठ कर दोनों ने नक़्शा बनाया कि शहर को कैसे-कैसे ​कवर करना है। बीच-बीच में आयशा नए मकान के दरवाज़ों और खिड़कियों के पर्दों के रंग के बारे में उससे पूछती रही। और मलिक कॉलोनी के पार्क के अतराफ़ तमाम झुग्गियों के चक्कर लगा कर, जोगेश्वरी, अन्धेरी, सान्ताक्रूज़, कालीना, कुर्ला और फिर हाई-वे पर कर बांद्रा तक के तमाम इम्कानी मुक़ामात देख डाले। नतीजा कुछ नहीं निकला। एक बज गया। आयशा का दिल डूबने लगा। उसे इण्डियन आॅइल की इमारत के पीछे फैली हुई तमाम इंसानी आबादी अजनबी महसूस हुई। हद-ए-नज़र तक फैले हुए मकानों के मकीनों के ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त नफ़रत का जज़्बा उसके दिल में शोले बन कर उठा। वो शोला आहिस्ता-आहिस्ता बैठ गया और सीने में घुटन सी होने लगी। उसने रूहाँसे अन्दाज़ में ज़फ़र की तरफ़ देखा। उसकी आँखों में आँसू देख कर ज़फ़र का दिल भी कमज़ोर हो गया। वो दोनों वहीं एक पुलिया पर बैठ गए। उसके आगे ऑटो नहीं जाता। बम्बई में टैक्सी करनी पड़ेगी।

    चलो दादर तक और देख आएँ। ज़फ़र ने उम्मीद बँधाई।

    आप सोच लें ऐसा हो कि क़ुर्बानी भी अकारत जाए। अब वक़्त ज़ियादा नहीं बचा है। आयशा ने अन्देशा ज़ाहिर किया। इस अन्देशे के ताइर उसके कानों के पास भी फड़फड़ाए थे मगर उसने हिम्मत बँधाई।

    तुम फ़िक्र मत करो आयशा। दोनों काम वक़्त से हो जाएँगे। उसने शौहरों वाले सरपरस्ताना अन्दाज़ में तसल्ली दी। शिवाजी पार्क के आस-पास अक्सर बीसियों लड़के नज़र आते थे मगर आज सब ग़ायब थे। आगे बढ़े तो परियल के बाद लाल बाग़ में बूट पॉलिश करता एक लड़का नज़र आया। उससे मुआमलात की बात की तो उसने हँस कर बताया कि वो एक दिन में अस्सी रूपए कमाता है। ज़फ़र ने जल्दी-जल्दी हिसाब लगा कर उसकी माहाना आमदनी का मुवाज़ना अपनी तनख़्वाह से किया और घबरा कर आयशा का हाथ पकड़ कर आगे हो लिया।

    भारत माता वाली सड़क से वर्ली पहुँचे, वहाँ मेला होटल के पास एक सुर्ख़ बत्ती पर जब टैक्सी रुकी तो एक 13-14 बरस के सियाह फ़ाम लड़के ने टैक्सी का शीशा एक मैले कपड़े से और गन्दा किया और उन दोनों के सामने कर हाथ फैला दिए।

    काम करोगे? घर का। आयशा ने शीशा खोल कर बेताबी से पूछा।

    करूँगा।

    क्या कहा? आयशा और ज़फ़र दोनों के मुँह से एक साथ निकला।

    करूँगा। क्या मिलेगा?

    तीन वक़्त का खाना, साफ़ कपड़े, बिजली का पंखा, बिस्तर भी मिलेगा और साथ में पैसे भी।

    पहले कहीं काम किया है? आयशा ने जल्दी-जल्दी जुमले अदा किये।

    हाँ। पीछू वाली बिल्डिंग में ग्यारह माले पर बर्तन माँझे।

    बत्ती हरी हो गई थी। दोनों जल्दी-जल्दी टैक्सी से उतरे, पैसे अदा किए और लड़के का हाथ मज़बूती से थामे-थामे फ़ुटपाथ पर आए। दोनों के दिल बाग़-बाग़ थे। लड़के का घर उस तंग गली में था जिसकी इब्तिदा सड़क से होती थी और इन्तिहा उस झुग्गी पर जा कर होती थी जो लगभग आधी के क़रीब समुन्दर की कीचड़ के ऊपर झुकी हुई थी। वो जुनूबी हिन्द की एक मज़दूर पेशा औरत का चौथा बेटा था जिसकी माँ अभी दो साल पहले एक शराबी की झुग्गी में बसी थी।

    पैसा...? माँ के शराबी मर्द ने हाथ नचा कर पूछा।

    ज़फ़र ने घड़ी देखी चार बज रहे थे। आयशा ने भी वक़्त देख लिया। ज़फ़र ने मुआमलात की बातें जल्दी-जल्दी तय कीं और अपना पता और सौ रूपये का नोट दे कर लड़के का हाथ पकड़ कर, माँ और उसके मर्द को दिलासे देते हुए तेज़ी से गली के बाहर आए और एक टैक्सी रुकवा कर तीनों सवार हुए। माँ गली के मोड़ तक लड़के को छोड़ने आई थी। वो अपनी ज़बान में लड़के को कुछ समझाती जा रही थी। लड़का सर हिला-हिला कर तमाम बातों का इक़रार करता जा रहा था।

    वर्ली से गोरेगाँव तक ज़फ़र ने लड़के का जाइज़ा ले कर पूरा मन्सूबा बना लिया कि किस तरह उसे दो घण्टे के अन्दर-अन्दर इस क़ाबिल बनाया जा सकता है कि साहब और मैडम के सामने पेश करते वक़्त शर्मिन्दगी हो। वो उसे कुछ समझाता भी जा रहा था। वर्ली से गोरेगाँव तक आयशा नए मिलने वाले मकान के दरवाज़ों और खिड़कियों पर परदे टाँगती रही और नए बेडरूम की चादर की सिलवटों को दूर करती रही। वर्ली से गोरेगाँव तक लड़का हवन्नक़ों की तरह बैठा सोचता रहा कि तीन वक़्त खाना खाने में कितना मज़ा आएगा।

    अपनी बिल्डिंग में पहुँच कर, दूसरे माले पर बने बाथ रूम में जा कर ज़फ़र ने उसे पहले रिन साबुन से साफ़ किया और फिर लाइफ़बॉय से नहलाया। नेल कटर से नाख़ुन तराशे और नाख़ूनों का मैल अच्छी तरह साफ़ किया जो नाख़ुन तराशने के बावुजूद उँगलियों के सिरों पर वैसा ही जमा रह गया था। अपने बेटे के कपड़े पहनाए। फिर आयशा ने उसके बालों में तेल डाल कर कंघी की। अब वो बिल्कुल तय्यार था। ऊपर से दोनों बच्चे बकरे को ले कर नीचे उतरे।

    पापा-पापा हमने उसे आज ख़ूब रोटी खिलाई और ख़ूब नहलाया और अपनी तौ​िलया से साफ़ किया। बच्चों ने दाद-तलब नज़रों से बाप को देखा।

    जल्दी कीजिए बकरा भी साथ ले जाइए। रास्ते में ज़िब्ह करा दीजिएगा। आयशा बोली।

    बहुत कम वक़्त रह गया। ज़फ़र ने देखा कि आयशा की आँखों में सफ़ेद परों और सुर्ख़ परों वाले फ़रिश्ते फड़फड़ा रहे थे।

    तुम फ़िक्र मत करो आयशा। ज़फ़र ने हस्ब-ए-मामूल उसे दिलासा दिया। और एक हाथ में बकरे की रस्सी और दूसरे में बच्चे का हाथ पकड़ कर सीढ़ियाँ उतर कर नीचे गया। ऑटो रिक्शा के ड्राइवर को किसी किसी तरह राज़ी करके बकरे और लड़के को सवार कराया। घड़ी देखी। सूरज डूबने में थोड़ी ही देर रह गई थी। उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं।

    ज़रा जल्दी करो ड्राइवर साहब। उसने बेताबी के साथ ड्राइवर के कन्धे पर हाथ रख कर कहा।

    अपन बहुत तेज़ चल रहा है साहब। एरोप्लेन माफ़िक। ज़फ़र उसके मिज़ाह से लुत्फ़-अन्दोज़ नहीं हो सका। चेहरा निकाल कर ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों पर सिमटी हुई फीकी-फीकी सूरज की रौशनी को देखता रहा। अचानक एक अन्देशे ने पर फड़-फड़ाए। कहीं देर हो जाने की वज्ह से साहब और मैडम ने कोई दूसरा नौकर रख लिया हो। हो सकता है साहब ने दफ़्तर में किसी और से भी कह रखा हो। वो ये सोच-सोच कर बद-मज़ा हो रहा था। वो देर तक यही सोचता रहा। अचानक उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे ट्राफ़िक के शोर में पीछे से मग़रिब की अज़ान की आवाज़ उसके कान में आई हो।

    जोगेश्वरी की तरफ़, जोगेश्वरी की तरफ़ मोड़ लो। बकरा क़ुर्बान करना है ड्राइवर साहब। ज़फ़र चिल्लाया।

    ड्राइवर ने ऑटो किनारे करके बताया, जोगेश्वरी तो निकल गया साहब, अपन लोग सान्ताक्रूज़ के पास गए वो देखो सामने एरोप्लेन उड़ा। ज़फ़र ने देखा रनवे पर एक सफ़ेद परों वाला फ़रिश्ता उसकी सम्त आते-आते एक तरफ़ को मुड़ा और दूर आसमान की तरफ़ उड़ गया। बकरे पर उसकी गि​िरफ़्त ढीली पड़ गई।

    फिर भी जोगेश्वरी चलो। इसे ले कर कहाँ जाएँगे। ज़फ़र ने कमज़ोर आवाज़ में कहा।

    क़ुर्बानी का वक़्त निकल गया। अब इस जानवर के आधे पैसे मिल पाएँगे। जोगेश्वरी में क़साई बोला।

    जब वो आधे पैसे लेकर ऑटो में बैठ कर रवाना हुआ तो उसने देखा सुर्ख़ परों वाला फ़रिश्ता हाथ में नंगी छुरी लिए बकरे को अपने घर की तरफ़ हाँक रहा है। जिस सड़क पर ऑटो दौड़ रहा था वो उसे बाल से ज़ियादा बारीक और क़साई की छुरी से ज़ियादा धारदार महसूस हुई। एक और ख़याल से उसकी आँखों में आँसू गए कि कहीं साहब और मैडम ने देर हो जाने की वज्ह से किसी और का लाया हुआ नौकर रख लिया हो। मरे-मरे क़दमों से साहब के घर की सीढ़ियाँ चढ़ कर जब उसने घण्टी का बटन दबाया तो ये देख कर उसका दिल ख़ुश हो गया कि दरवाज़ा किसी नौकर ने नहीं, साहब के बेटे ने खोला था।

    आईए पापा और मम्मी आप का कितनी देर से इन्तिज़ार कर रहे हैं। ड्रॉइंग रूम में हैं। साहब के बेटे ने ड्रॉइंग रूम की तरफ़ इशारा क्या। लड़के का हाथ पकड़ कर वो ड्रॉइंग रूम में दाख़िल हुआ। उसने देखा कि ड्रॉइंग रूम के वस्त में एक नूर का पैकर जल्वा-गर था और उसके नज़दीक ही सफ़ेद परों वाला फ़रिश्ता साड़ी पहने खड़ा था जो आने वालों को शफ़क़त के साथ मुस्कुरा कर देख रहा था।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए