वो शम्अ' करे फ़ख़्र भला ख़ुद पे तो कैसे
दहलीज़ पे जिस की कोई परवाना नहीं है
रंगीनी-ओ-नुज़हत पे न मग़रूर हो बुलबुल
है रंग बहार-ए-चमनिस्ताँ कोई दिन और
तमाम शहर को है जिस पे नाज़ ऐ 'जौहर'
इक ऐसा शख़्स हमारे नगर में रहता है
गुरेज़-पा है जो मुझ से तिरा विसाल तो क्या
मिरा जुनूँ भी है आमादा-ए-ज़वाल बहुत