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आलमताब तिश्ना

1935 - 1991 | कराची, पाकिस्तान

आलमताब तिश्ना के शेर

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विसाल-ए-यार की ख़्वाहिश में अक्सर

चराग़-ए-शाम से पहले जला हूँ

नफ़रत भी उसी से है परस्तिश भी उसी की

इस दिल सा कोई हम ने तो काफ़र नहीं देखा

हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें

हमें हमारे रक़ीबों ने मो'तबर जाना

हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी

जो सर झुक सके वो क़लम कर दिए गए

इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता

हर गाम पे गुल खिलते ख़ुशबू का सफ़र होता

ये कहना हार मानी कभी अंधेरों से

बुझे चराग़ तो दिल को जला लिया कहना

पहले निसाब-ए-अक़्ल हुआ हम से इंतिसाब

फिर यूँ हुआ कि क़त्ल भी हम कर दिए गए

मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा

चराग़ ले के कोई साथ साथ चलता है

हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की

जैसे ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो ला-शरीक था

ये कहना तुम से बिछड़ कर बिखर गया 'तिश्ना'

कि जैसे हाथ से गिर जाए आईना कहना

बन के ताबीर भी आया होता

नित-नए ख़्वाब दिखाने वाला

तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला

मैं तेरी ज़ात में पिन्हाँ था और तू मैं था

शोरीदगी को हैं सभी आसूदगी नसीब

वो शहर में है क्या जो बयाबान में नहीं

मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में

है सवाद-ए-आब-ओ-आतिश दीदा दिल के क़रीब

मैं तुझ को चाहूँ तो ऐसा कि ख़ुद फ़ना हो जाऊँ

मिरा वजूद तिरा आइना दिखाई दे

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