aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1725 - 1794 | फ़ैज़ाबाद, भारत
18वी सदी के अग्रणी शायर, मीर तक़ी 'मीर' के समकालीन।
जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया
नर्गिस का उसे जल्वा इक पश्म नज़र आया
पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलत
पर शब की मिन्नतों ने डुबो दी रही सही
शैख़-जी क्यूँकि मआसी से बचें हम कि गुनाह
इर्स है अपनी हम आदम के अगर पोते हैं
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
पहुँची जो कुछ अज़िय्यत अपने गुमाँ से मुझ को
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
इस उम्र में है वर्ना मज़ा क्या ख़िज़ाब का
Deewan-e-Qaim
Deewan-e-Qayem
1953
1905
Intikhab-e-Ghazliyat-e-Qayem Chandpuri
1983
इंतिख़ाब-ए-कलाम
1970
कुल्लियात-ए-क़ाइम
खण्ड-002
1965
खण्ड-001
Makhzan-e-Nikaat
Tazkira
1929
क़ायम चाँद पुरी
Intikhab
1963
क़ाएम चाँद पुरी हयात-ओ-ख़िदमात
2011
क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया
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