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साहिर लुधियानवी

1921 - 1980 | मुंबई, भारत

प्रख्यात प्रगतिशील भारतीय शायर व फ़िल्मी गीतकार/ सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक असमानता के विरुद्ध नज़्मों और गीतों के लिए प्रसिद्ध

प्रख्यात प्रगतिशील भारतीय शायर व फ़िल्मी गीतकार/ सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक असमानता के विरुद्ध नज़्मों और गीतों के लिए प्रसिद्ध

साहिर लुधियानवी के शेर

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लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद

लो अब कभी गिला करेंगे किसी से हम

दुनिया ने तजरबात हवादिस की शक्ल में

जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं

कभी मिलेंगे जो रास्ते में तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे

कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा तो चुप रहेंगे नज़र झुका के

ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते

किन बहानों से तबीअ'त राह पर लाई गई

अद्ल-गाहें तो दूर की शय हैं

क़त्ल अख़बार तक नहीं पहुँचा

कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता

वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ

देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से

चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से

क्या मोल लग रहा है शहीदों के ख़ून का

मरते थे जिन पे हम वो सज़ा-याब क्या हुए

फिर कीजे मिरी गुस्ताख़-निगाही का गिला

देखिए आप ने फिर प्यार से देखा मुझ को

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया

किस मंज़िल-ए-मुराद की जानिब रवाँ हैं हम

रह-रवान-ए-ख़ाक-बसर पूछते चलो

बरतरी के सुबूत की ख़ातिर

ख़ूँ बहाना ही क्या ज़रूरी है

इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर

हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़

मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत पूछिए

अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम

उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ

अब तो ये बातें भी दिल हो गईं आई गई

वफ़ा-शिआर कई हैं कोई हसीं भी तो हो

चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें

हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार

हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं

तंग चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम

ठुकरा दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम

हर कूचा शो'ला-ज़ार है हर शहर क़त्ल-गाह

यक-जेहती-ए-हयात के आदाब क्या हुए

जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं

कैसे नादान हैं शो'लों को हवा देते हैं

तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ

मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत पे ए'तिबार नहीं

मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनहगार तुम भी हो

रहबरना-ए-क़ौम ख़ता-कार तुम भी हो

इस तरह निगाहें मत फेरो, ऐसा हो धड़कन रुक जाए

सीने में कोई पत्थर तो नहीं एहसास का मारा, दिल ही तो है

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है

ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर दोस्त

सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया

तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं

महफ़िल में तुम्हारे आने से हर चीज़ पे नूर जाता है

जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया

जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया

आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें

हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं

जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है

जंग क्या मसअलों का हल देगी

हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत

देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम

ये माना मैं किसी क़ाबिल नहीं हूँ इन निगाहों में

बुरा क्या है अगर ये दुख ये हैरानी मुझे दे दो

मिरी नदीम मोहब्बत की रिफ़अ'तों से गिर

बुलंद बाम-ए-हरम ही नहीं कुछ और भी है

माना कि इस ज़मीं को गुलज़ार कर सके

कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम

यूँही दिल ने चाहा था रोना-रुलाना

तिरी याद तो बन गई इक बहाना

दिल के मुआमले में नतीजे की फ़िक्र क्या

आगे है इश्क़ जुर्म-ओ-सज़ा के मक़ाम से

नालाँ हूँ मैं बेदारी-ए-एहसास के हाथों

दुनिया मिरे अफ़्कार की दुनिया नहीं होती

आँखें ही मिलाती हैं ज़माने में दिलों को

अंजान हैं हम तुम अगर अंजान हैं आँखें

अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं

तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी

तरब-ज़ारों पे क्या गुज़री सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री

दिल-ए-ज़िंदा मिरे मरहूम अरमानों पे क्या गुज़री

बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले

अगर सदा उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले

तुम ने सिर्फ़ चाहा है हम ने छू के देखे हैं

पैरहन घटाओं के जिस्म बर्क़-पारों के

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें

वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं

अँधेरी शब में भी तामीर-ए-आशियाँ रुके

नहीं चराग़ तो क्या बर्क़ तो चमकती है

अब आएँ या आएँ इधर पूछते चलो

क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो

अभी छेड़ मोहब्बत के गीत मुतरिब

अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं

हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा

जो तुझ से हुई हो वो ख़ता साथ लिए जा

अरे आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है

ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ

तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है

तेरे हाथों में मिरे हाथ हैं ज़ंजीर नहीं

रंगों में तेरा अक्स ढला तू ढल सकी

साँसों की आँच जिस्म की ख़ुश्बू ढल सकी

उधर भी ख़ाक उड़ी है इधर भी ख़ाक उड़ी

जहाँ जहाँ से बहारों के कारवाँ निकले

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