सलीम अहमद के शेर
घास में जज़्ब हुए होंगे ज़मीं के आँसू
पाँव रखता हूँ तो हल्की सी नमी लगती है
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टैग : आँसू
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न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
कि जो भी लफ़्ज़ था वो दिल दुखाने वाला था
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सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को
बात जो दिल से निकलती है बुरी लगती है
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दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
घर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना
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टैग : घर
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निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे
ये शहर आब को तरसेगा चश्म-ए-तर के बग़ैर
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टैग : गिर्या-ओ-ज़ारी
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इतनी काविश भी न कर मेरी असीरी के लिए
तू कहीं मेरा गिरफ़्तार न समझा जाए
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टैग : मशवरा
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उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
उस एक शख़्स में किस किस को देखता था मैं
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टैग : सूरत शायरी
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किसी को क्या बताऊँ कौन हूँ मैं
कि अपनी दास्ताँ भूला हुआ हूँ
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मैं वो मअ'नी-ए-ग़म-ए-इश्क़ हूँ जिसे हर्फ़ हर्फ़ लिखा गया
कभी आँसुओं की बयाज़ में कभी दिल से ले के किताब तक
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कौन तू है कौन मैं कैसी वफ़ा
हासिल-ए-हस्ती हैं कुछ रुस्वाइयाँ
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दुख दे या रुस्वाई दे
ग़म को मिरे गहराई दे
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
उसे दरिया का अंदाज़ा नहीं है
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टैग : दरिया
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ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
ये कैसे लोग हैं जिन को घरों से डर नहीं लगता
देवता बनने की हसरत में मुअल्लक़ हो गए
अब ज़रा नीचे उतरिए आदमी बन जाइए
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टैग : इंसान
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मेरा शोर-ए-ग़र्क़ाबी ख़त्म हो गया आख़िर
और रह गया बाक़ी सिर्फ़ शोर दरिया का
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मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं
मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ
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टैग : बचपन
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मंज़िल का पता है न किसी राहगुज़र का
बस एक थकन है कि जो हासिल है सफ़र का
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वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे
उन की शोहरत है मेरी रुस्वाई
कोई नहीं जो पता दे दिलों की हालत का
कि सारे शहर के अख़बार हैं ख़बर के बग़ैर
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टैग : अख़बार
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मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
यूँ न मिलने का निकाला है बहाना कैसा
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कैसे क़िस्से थे कि छिड़ जाएँ तो उड़ जाती थी नींद
क्या ख़बर थी वो भी हर्फ़-ए-मुख़्तसर हो जाएँगे
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टैग : याद-ए-रफ़्तगाँ
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साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके
ये रब्त है चराग़ का कैसा हवा के साथ
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सख़्त बीवी को शिकायत है जवान-ए-नौ से
रेल चलती नहीं गिर जाता है पहले सिगनल
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मैं तुझ को कितना चाहता हूँ
ये कहना ग़ैर-ज़रूरी है
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याद ने आ कर यकायक पर्दा खींचा दूर तक
मैं भरी महफ़िल में बैठा था कि तन्हा हो गया
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नहीं रहा मैं तिरे रास्ते का पत्थर भी
वो दिन भी थे तिरे एहसास में ख़ुदा था मैं
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वो बे-ख़ुदी थी मोहब्बत की बे-रुख़ी तो न थी
पे उस को तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ को इक बहाना हुआ
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
बे-घर को मकान दे रहा हूँ
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ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ
सो अंदर से पिघलता जा रहा हूँ
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ख़ुद अपनी दीद से अंधी हैं आँखें
ख़ुद अपनी गूँज से बहरा हुआ हूँ
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हाल-ए-दिल कौन सुनाए उसे फ़ुर्सत किस को
सब को इस आँख ने बातों में लगा रक्खा है
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बार-हा यूँ भी हुआ तेरी मोहब्बत की क़सम
जान कर हम ने तुझे ख़ुद से ख़फ़ा रक्खा है
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इक पतिंगे ने ये अपने रक़्स-ए-आख़िर में कहा
रौशनी के साथ रहिए रौशनी बन जाइए
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साए को साए में गुम होते तो देखा होगा
ये भी देखो कि तुम्हें हम ने भुलाया कैसे
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बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
ग़ज़ल से काम लिया मुख़्तसर बनाने का
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आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
भेड़ीए पढ़ते नहीं हैं फ़ल्सफ़ा
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हाल-ए-दिल ना-गुफ़्तनी है हम जो कहते भी तो क्या
फिर भी ग़म ये है कि उस ने हम से पूछा ही नहीं
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क़ुर्ब-ए-बदन से कम न हुए दिल के फ़ासले
इक उम्र कट गई किसी ना-आश्ना के साथ
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ख़ुश-नुमा लफ़्ज़ों की रिश्वत दे के राज़ी कीजिए
रूह की तौहीन पर आमादा रहता है बदन
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सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
वो ढूँडता था मुझे और खो गया था मैं
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लिबास-ए-दर्द भी हम ने उतारा
ये कपड़े अब पुराने हो चुके हैं
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दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
गाहक को दुकान दे रहा हूँ
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ये नहीं है कि नवाज़े न गए हों हम लोग
हम को सरकार से तमग़ा मिला रुस्वाई का
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मैं उस को भूल गया था वो याद सा आया
ज़मीं हिली तो मैं समझा कि ज़लज़ला आया
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ये कैसे लोग हैं सदियों की वीरानी में रहते हैं
इन्हें कमरों की बोसीदा छतों से डर नहीं लगता
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इक आग सी जलती रही ता-उम्र लहू में
हम अपने ही एहसास में पकते रहे ता-देर
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जिस आग से दिल सुलग रहे थे
अब उस से दिमाग़ जल रहे हैं
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हाल मत पूछ मोहब्बत का हवा है कुछ और
ला के किस ने ये सर-ए-राह दिया रक्खा है
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आँसुओं से तू है ख़ाली दर्द से आरी हूँ मैं
तेरी आँखें काँच की हैं मेरा दिल पत्थर का है
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