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शाद अज़ीमाबादी

1846 - 1927 | पटना, भारत

अग्रणी पूर्व-आधुनिक शायरों में विख्यात।

अग्रणी पूर्व-आधुनिक शायरों में विख्यात।

शाद अज़ीमाबादी के शेर

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निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को

मिरा वो हाथ में साग़र उठा के रह जाना

जीते जी हम तो ग़म-ए-फ़र्दा की धुन में मर गए

कुछ वही अच्छे हैं जो वाक़िफ़ नहीं अंजाम से

दिल-ए-मुज़्तर से पूछ रौनक़-ए-बज़्म

मैं ख़ुद आया नहीं लाया गया हूँ

तेरे बीमार-ए-मोहब्बत की ये हालत पहुँची

कि हटाया गया तकिया भी सिरहाने वाला

भरे हों आँख में आँसू ख़मीदा गर्दन हो

तो ख़ामुशी को भी इज़हार-ए-मुद्दआ कहिए

अजल भी टल गई देखी गई हालत आँखों से

शब-ए-ग़म में मुसीबत सी मुसीबत हम ने झेली है

तिरा आस्ताँ जो मिल सका तिरी रहगुज़र की ज़मीं सही

हमें सज्दा करने से काम है जो वहाँ नहीं तो कहीं सही

देखने वाले को तेरे देखने आते हैं लोग

जो कशिश तुझ में थी अब वो तेरे दीवाने में है

कहते हैं अहल-ए-होश जब अफ़्साना आप का

हँसता है देख देख के दीवाना आप का

तस्कीन तो होती थी तस्कीन होने से

रोना भी नहीं आता हर वक़्त के रोने से

ख़ारों से ये कह दो कि गुल-ए-तर से उलझें

सीखे कोई अंदाज़-ए-शरीफ़ाना हमारा

नाज़ुक था बहुत कुछ दिल मेरा 'शाद' तहम्मुल हो सका

इक ठेस लगी थी यूँ ही सी किया जल्द ये शीशा टूट गया

परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका

गुज़री है रात शम्अ पे क्या देखते चलें

सुन चुके जब हाल मेरा ले के अंगड़ाई कहा

किस ग़ज़ब का दर्द ज़ालिम तेरे अफ़्साने में था

शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ खुला

हम में है दिल-ए-बेताब निहाँ या आप दिल-ए-बेताब हैं हम

दिल अपनी तलब में सादिक़ था घबरा के सू-ए-मतलूब गया

दरिया से ये मोती निकला था दरिया ही में जा कर डूब गया

ग़ुंचों के मुस्कुराने पे कहते हैं हँस के फूल

अपना करो ख़याल हमारी तो कट गई

नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है

हमारा आप का जीना नहीं जीना उसी का है

चमन में जा के हम ने ग़ौर से औराक़-ए-गुल देखे

तुम्हारे हुस्न की शरहें लिखी हैं इन रिसालों में

मैं हैरत हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर

दरिया-ए-मोहब्बत कहता है कुछ भी नहीं पायाब हैं हम

हज़ार शुक्र मैं तेरे सिवा किसी का नहीं

हज़ार हैफ़ कि अब तक हुआ तू मेरा

जैसे मिरी निगाह ने देखा हो कभी

महसूस ये हुआ तुझे हर बार देख कर

इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ

तेवर तुम्हारे देख के ख़ामोश हो गया

कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब साक़ी

ख़ुम आएगा सुराही आएगी तब जाम आएगा

ईद में ईद हुई ऐश का सामाँ देखा

देख कर चाँद जो मुँह आप का जाँ देखा

लहद में क्यूँ जाऊँ मुँह छुपाए

भरी महफ़िल से उठवाया गया हूँ

एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने

तिरछी निगाहें तंग क़बाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने

तलब करें भी तो क्या शय तलब करें 'शाद'

हमें तो आप नहीं अपना मुद्दआ मालूम

जो तंग कर किसी दिन दिल पे हम कुछ ठान लेते हैं

सितम देखो कि वो भी छूटते पहचान लेते हैं

मैं 'शाद' तन्हा इक तरफ़ और दुनिया की दुनिया इक तरफ़

सारा समुंदर इक तरफ़ आँसू का क़तरा इक तरफ़

ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी

जो बढ़ कर ख़ुद उठा ले हाथ में मीना उसी का है

हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह

इधर से मुद्दतों आया गया हूँ

अब भी इक उम्र पे जीने का अंदाज़ आया

ज़िंदगी छोड़ दे पीछा मिरा मैं बाज़ आया

सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियाँ से सुनी

इब्तिदा की ख़बर है इंतिहा मा'लूम

तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ

खिलौने दे के बहलाया गया हूँ

ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम

जो याद आए भूल के फिर हम-नफ़सो वो ख़्वाब हैं हम

कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक 'शाद' जा पहुँचें

अभी तक राह में वो कर रहे हैं इंतिज़ार अपना

कौन सी बात नई दिल-ए-नाकाम हुई

शाम से सुब्ह हुई सुब्ह से फिर शाम हुई

शब को मिरी चश्म-ए-हसरत का सब दर्द-ए-दिल उन से कह जाना

दाँतों में दबा कर होंट अपना कुछ सोच के उस का रह जाना

ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है

तड़प दिल तड़पने से ज़रा तस्कीन होती है

जब किसी ने हाल पूछा रो दिया

चश्म-ए-तर तू ने तो मुझ को खो दिया

मिलेगा ग़ैर भी उन के गले ब-शौक़ दिल

हलाल करने मुझे ईद का हिलाल आया

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