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शौकत परदेसी

1924 - 1995 | जौनपुर, भारत

शायर,पत्रकार और गीतकार। ग़ुलाम बेगम बादशाह और झाँसी की रानी जैसी फ़िल्मों के संवाद लेखक

शायर,पत्रकार और गीतकार। ग़ुलाम बेगम बादशाह और झाँसी की रानी जैसी फ़िल्मों के संवाद लेखक

शौकत परदेसी के शेर

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उस की हँसी तुम क्या समझो

वो जो पहरों रोया है

उन की निगाह-ए-नाज़ की गर्दिश के साथ साथ

महसूस ये हुआ कि ज़माना बदल गया

इंक़लाब-ए-नौ तिरी रफ़्तार देख कर

ख़ुद हम भी सोचते हैं कि अब तक कहाँ रहे

शरीक-ए-दर्द नहीं जब कोई तो 'शौकत'

ख़ुद अपनी ज़ात की बेचारगी ग़नीमत है

अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही

वक़्त की बात समझ में आई वक़्त ही के समझाने से

अगर तुम मिल भी जाते तो होता ख़त्म अफ़्साना

फिर उस के बा'द दिल में क्या ख़बर क्या आरज़ू होती

निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई

ये तर्जुमान-ए-मोहब्बत है बे-ज़बाँ कहो

होश वाले तो उलझते ही रहे

रास्ते तय हुए दीवानों से

अधूरा हो के हूँ कितना मुकम्मल

ब-मुश्किल ज़िंदगी बिखरा हुआ हूँ

हुस्न-ए-इख़्लास ही नहीं वर्ना

आदमी आदमी तो आज भी है

तुम ही अब वो नहीं रहे वर्ना

वही आलम वही ख़ुदाई है

क़रीब से उसे देखो तो वो भी तन्हा है

जो दूर से नज़र आता है अंजुमन यारो

वो आँखें जो अब अजनबी हो गई हैं

बहुत दूर तक उन में पाया गया हूँ

हँसते हँसते बहे हैं आँसू भी

रोते रोते हँसती भी आई हमें

ज़िंदगी से कोई मानूस तो हो ले पहले

ज़िंदगी ख़ुद ही सिखा देगी उसे काम की बात

कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई

कुछ मयस्सर हुई नादानों से

क्या बढ़ेगा वो तसव्वुर की हदों से आगे

सुब्ह को देख के याद आए जिसे शाम की बात

हवाएँ रोक पाईं भँवर डुबो सके

वो एक नाव जो अज़्म-ए-सफ़र के बा'द चली

किसी की बाज़ी कैसी घात

वक़्त का पाँसा वक़्त की बात

इस फ़ैसले पे लुट गई दुनिया-ए-ए'तिबार

साबित हुआ गुनाह गुनहगार के बग़ैर

देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर

इम्कान-ए-इल्तिफ़ात से हम खेलते रहे

जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर

वो बात करे है तो कोई तीर लगे है

'शौकत' वो आज आप को पहचान तो गए

अपनी निगाह में जो कभी आसमाँ रहे

मौज-ए-तूफ़ाँ से निकल कर भी सलामत रहे

नज़्र-ए-साहिल हुए दरिया के शनावर कितने

रात इक नादार का घर जल गया था और बस

लोग तो बे-वज्ह सन्नाटे से घबराने लगे

अहद-ए-आग़ाज़-ए-तमन्ना भी मुझे याद नहीं

महव-ए-हैरत हूँ कि इतना भी मुझे याद नहीं

ख़ुद वो करते हैं जिसे अहद-ए-वफ़ा से ताबीर

सच तो ये है कि वो धोका भी मुझे याद नहीं

ना-शनासान-ए-मुहब्बत का गिला क्या कि यहाँ

अजनबी वो हैं कि थी जिन से शनासाई भी

हदूद-ए-जिस्म से आगे बढ़े तो ये देखा

कि तिश्नगी थी बरहना तिरी अदाओं तक

ये कैसी बे-क़रारी सुनने वालों के दिलों में है

वरक़ दोहरा रहा है क्या कोई मेरी कहानी का

हाए उस मिन्नत-कश-ए-वहम-ओ-गुमाँ की जुस्तुजू

ज़िंदगी जिस को पाए जो पाए ज़िंदगी

फूँक कर सारा चमन जब वो शरीक-ए-ग़म हुए

उन को इस आलम में भी ग़म-आश्ना कहना पड़ा

बर्क़ की शो'ला-मिज़ाजी है मुसल्लम लेकिन

मैं ने देखा मिरे साए से ये कतराती है

जी में आता है कि 'शौकत' किसी चिंगारी को

कर दूँ फिर शो'ला-ब-दामाँ कि कोई बात चले

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