ज़रीफ़ लखनवी
ग़ज़ल 11
नज़्म 1
अशआर 7
हमें बतला न दें आशिक़ जो हैं रू-ए-किताबी पर
सबक़ है क्या कोई मा'शूक़ जिस को याद करते हैं
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ज़रीफ़' अब फ़ाएदा क्या शाइ'रों को सर्दी खाने से
ग़ज़ल हम पढ़ चुके घर जाएँ क्यूँ बे-कार बैठे हैं
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मय को जो इस्तिलाह में कहते हैं दुख़्त-ए-रज़
वो मुग़बचा है रिंदों का साला कहें जिसे
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वहशत में हर इक नक़्शा उल्टा नज़र आता है
मजनूँ नज़र आती है लैला नज़र आता है
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