पीतल का घंटा
स्टोरीलाइन
एक ज़माने में क़ाज़ी इमाम हुसैन अवध के ताल्लुकादार थे, उनकी बहुत ठाट-बाट थी.। हर कोई उनसे मिलने आता था। अपनी शादी के वक़्त जब हीरो पहली बार उनसे मिला था तो उन्होंने उसे अपने यहाँ आने की दावत दी थी। अब एक अर्सा बाद उनके गाँव के पास से गुज़रते वक़्त बस ख़राब हो गई तो वह क़ाज़ी इमाम हुसैन के यहाँ चला गया। वहाँ उसने देखा कि क़ाज़ी साहब का तो हुलिया ही बदला हुआ है। कहाँ वह ठाट-बाट और कहाँ अब पैवंद लगे कपड़े पहने हैं। क़ाज़ी साहब के यहाँ इस समय इतनी गु़रबत है कि उन्हें मेहमान की मेहमान-नवाज़ी करने के लिए अपना मोहर लगा पीतल का घंटा तक बेच देना पड़ता है।
आठवीं मर्तबा हम सब मुसाफ़िरों ने लारी को धक्का दिया और ढकेलते हुए ख़ासी दूर तक चले गए। लेकिन इंजन गुनगुनाया तक नहीं। डराइवर गर्दन हिलाता हुआ उतर पड़ा। कंडक्टर सड़क के किनारे एक दरख़्त की जड़ पर बैठ कर बैट्री सुलगाने लगा। मुसाफ़िरों की नज़रें गालियां देने लगीं और होंट बड़बड़ाने लगे। मैं भी सड़क के किनारे सोचते हुए दूसरे पेड़ की जड़ पर बैठ कर सिगरेट बनाने लगा। एक-बार निगाह उठी तो सामने दूर दरख़्तों की चोटियों पर मस्जिद के मीनार खड़े थे। मैं अभी सिगरेट सुलगा ही रहा था कि एक मज़बूत खुरदुरे देहाती हाथ ने मेरी चुटकियों से आधी जली हुई तीली निकाल ली। मैं उसकी बे-तकल्लुफ़ी पर नागवारी के साथ चौंक पड़ा। मगर वो इत्मिनान से अपनी बीड़ी जला रहा था वो मेरे पास ही बैठ कर बेड़ी पीने लगा या बीड़ी खाने लगा।
“ये कौन गांव है?” मैंने मीनारों की तरफ़ इशारा कर के पूछा।
“यो... यो भुसवल है।”
भुसवल का नाम सुनते ही मुझे अपनी शादी याद आ गई। मैं अंदर सलाम करने जा रहा था कि एक बुज़ुर्ग ने टोक कर रोक दिया। वो क्लासिकी काट की बानात की अचकन और चौड़े पायंचे का पाजामा और फ़र की टोपी दिये मेरे सामने खड़े थे। मैंने सर उठाकर उनकी सफ़ेद पूरी मूँछें और हुकूमत से सींची हुई आँखें देखीँ। उन्होंने सामने खड़े हुए ख़िदमतगार के हाथ से फूलों की बद्धियाँ ले लीं और मुझे पहनाने लगे। मैंने बल खा कर अपनी बारसी पोत की झिलमिलाती हुई शेरवानी की तरफ़ इशारा करके तल्ख़ी से कहा, “क्या ये काफ़ी नहीं थी?” वो मेरी बात पी गए। बद्धियाँ बराबर कीं फिर मेरे नन्हे सर पर हाथ फेरा और मुस्कुरा कर कहा अब तशरीफ़ ले जाइए। मैंने डयोढ़ी पर किसी से पूछा कि “ये कौन बुज़ुर्ग थे।” बताया गया कि ये भुसवल के क़ाज़ी इनाम हुसैन हैं।
भुसवल के क़ाज़ी इनाम हुसैन, जिनकी हुकूमत और दौलत के अफ़साने मैं अपने घर में सुन चुका था। मेरे बुज़ुर्गों से उनके जो मरासिम थे मुझे मालूम थे। मैं अपनी गुस्ताख निगाहों पर शर्मिंदा था। मैंने अंदर से आकर कई बार मौक़ा ढूंढ कर उनकी छोटी मोटी ख़िदम्तें अंजाम दीं। जब मैं चलने लगा तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, मुझे भुसवल आने की दा’वत दी और कहा कि इस रिश्ते से पहले भी तुम मेरे बहुत कुछ थे लेकिन अब तो दामाद भी हो गए हो। इस क़िस्म के रस्मी जुमले भी कहते हैं लेकिन उस वक़्त उनके लहजे में ख़ुलूस की ऐसी गर्मी थी कि किसी ने ये जुमले मेरे दिल पर लिख दिये।
मैं थोड़ी देर खड़ा बिगड़ी ‘बस’ को देखता रहा। फिर अपना बैग झुलाता हुआ जुते हुए खेतों में इठलाती हुई पगडंडी पर चलने लगा। सामने रह शानदार मस्जिद खड़ी थी, जिसे क़ाज़ी इनाम हुसैन ने अपनी जवानी में बनवाया था। मस्जिद के सामने मैदान के दोनों तरफ़ टूटे फूटे मकान का सिलसिला था, जिनमें शायद कभी भुसवल के जानवर रहते होंगे। डयोढ़ी के बिल्कुल सामने दो ऊंचे आम के दरख़्त ट्राफिक सिपाही की तरह छतरी लगाए खड़े थे। उनके तने जल गए थे, जगह जगह मिट्टी भरी थी। डयोढ़ी के दोनों तरफ़ इमारतों के बजाय इमारतों का मलबा पड़ा था। दिन के तीन बजे थे ।वहां उस वक़्त न कोई आदमी था न आदमजा़द कि डयोढ़ी से क़ाज़ी साहिब निकले, लंबे क़द के झुके हुए, डोरिए की क़मीज़, मैला पाजामा और मोटर नामर के तलवों का पुराना पंप पहने हुए, माथे पर हथेली का छज्जा बनाए मुझे घूर रहे थे। मैंने सलाम किया। जवाब देने के बजाय वो मेरे क़रीब आए और जैसे यक-दम खिल गए, मेरे हाथ से मेरा बैग छीन लिया और मेरा हाथ पकड़े हुए डयोढ़ी में घुस गए।
हम इस चक्करदार डेयुढ़ी से गुज़र रहे थे जिसकी अँधेरी छत कमान की तरह झुकी हुई थी धीनूं को घुने हुए बदसूरत शहतीर रोके हुए थे। वो डयोढ़ी ही से चिल्लाए, “अरे सुनती हो देखो तो कौन आया है। मैंने कहा अगर संदूक़ वनदूक़ खोले बैठी हो तो बंद कर लो जल्दी से।” लेकिन दादी तो सामने ही खड़ी थीं, धुले हुए घड़ों की घड़ौंची के पास दादा उनको देखकर सिटपिटा गए। वो भी शर्मिंदा सी खड़ी थीं। फिर उन्होंने लपक कर घर की अलगनी पर पड़ी मारकीन की धुली चादर घसीट ली और दुपट्टा की तरह ओढ़ ली। चादर के एक सिरे को इतना लंबा कर दिया कि कुरते के दामन में लगा दूसरे कपड़े का चमकता पैवंद छुप जाये।
इस एहतिमाम के बाद वो मेरे पास आईं, काँपते हाथों से बलाऐं लीं। सुख और दुख की गंगा जमुनी आवाज़ में दुआ’एं दीं। दादी कानों से मेरी बात सुन रही थीं। लेकिन हाथों से जिनकी झुर्रियाँ भरी खाल झोल गई थी। दालान के इकलौते साबित पलंग को साफ़ कर रही थीं। जिस पर मैले कपड़े, कत्थे चूने की कुल्हियाँ और पान की डलियां ढेर थीं और आँखों से कुछ और सोच रही थीं, मुझे पलंग पर बैठा कर दूसरे झिंगा पलंग के नीचे से वो पंखा उठा लाईं, जिसके चारों तरफ़ काले कपड़े की गोट लगी थी और खड़ी हुई मेरे उस वक़्त तक झलती रहें जब तक मैंने छीन न लिया। फिर वो बावर्चीख़ाने में चली गईं। वो एक तीन दरों का दालान था। बीच में मिट्टी का चूल्हा बना था। अल्मुनियम की चंद मैली पतीलियॉ, कुछ पीपे कुछ डिब्बे कुछ शीशे के बोतल और दो-चार इसी क़िस्म की छोटी मोटी चीज़ों के इ’लावा वहां कुछ भी न था। वो मेरी तरफ़ पीठ किए चूल्हे के सामने बैठी थीं। दादा ने कोने खड़े हुए पुराने हुक़्क़ा से बेरंग चिलम उतारी और बावर्चीख़ाने में घुस गए। मैं उन दोनों की घुन घुन करती सरगोशियाँ सुनता रहा। दादा कई बार जल्दी जल्दी बाहर गए और आए। मैंने अपनी शेरवानी उतारी इधर उधर देख छः दरवाज़ों वाले कमरे के किवाड़ पर टांग दी। नक़्शैन कीवाड़ को दीमक चाट गई थी। एक जगह लोहे की पत्ती लगी थी। लेकिन बीचोंबीच गोल दायरे में हाथी दांत का काम, कत्थे और तेल के धब्बों में जगमगा रहा था। बैग खोल कर मैंने चप्पल निकाले और जब तक मैं दौड़ूँ दौड़ूँ दादा घड़ौंची पर से घड़ा उठा कर इस लंबे चौड़े कमरे में रख आए। जिसमें एक भी कीवाड़ ना था। सिर्फ घेरे लगे खड़े थे। जब मैं नहाने गया तो दादा अल्मुनियम का लोटा मेरे हाथ में पकड़ा कर मुजरिम की तरह बोले, “तुम बेटे इत्मिनान से नहाओ उधर कोई नहीं आएगा। पर्दे तो मैं डाल दूं लेकिन अंधेरा होते ही चमगादड़ घुस आएगी, और तुमको दिक़ करेगी।”
मैं घड़े को एक कोने में उठा ले गया वहां दीवार से लगा, अच्छी ख़ासी सेनी के बराबर पीतल का घंटा खड़ा था। मैंने झुक कर देखा घंटे में मुंगरियों की मार से दाग़ पड़ गए थे। दो अंगुल का हाशिया छोड़कर जो सुराख़ था उसमें सूत की काली रस्सी बंधी थी। उस सुराख़ के बराबर एक बड़ा सा चांद था उस के ऊपर सात पहल का सितारा था। मैंने तौलिया के कोने से झाड़कर देखा तो वो चांद तारा भुसवल स्टेट का मोनोग्राम था। अरबी रस्म-उल-ख़त में “क़ाज़ी इनाम हुसैन आफ़ भुसवल स्टेट अवध” खुदा हुआ था, यही वो घंटा था जो भुसवल की डयोढ़ी पर ऐ’लाने रियासत के तौर पर तक़रीबन एक सदी से बजता चला आ रहा था। मैंने उसे रोशनी में देखने के लिए उठाना चाहा लेकिन एक हाथ से न उठा सका। दोनों हाथों से उठा कर देखता रहा। मैं देर तक नहाता रहा, जब बाहर निकला तो आँगन में क़ाज़ी इनाम हुसैन पलंग बिछा रहे थे। क़ाज़ी इनाम हुसैन जिनकी गद्दी नशीनी हुई थी। जिनके लिए बंदूक़ो का लाईसेंस लेना ज़रूरी नहीं था जिन्हें हर अदालत तलब नहीं कर सकती थी। दोनों हाथों पर खिदमतगारों की तरह तबाक़ उठाए हुए आए जिसमें अलग अलग रंगों की दो प्यालियां ‘लब सोज़’ लब बंद चाय है लबरेज़ रखी थीं। एक बड़ी सी प्लेट में दो उबले हुए अंडे काट कर फैला दिए गए थे। शुरू अक्तूबर की ख़ुशगवार हवा के रेशमी झोंकों में हमलोग बैठे नमक पड़ी हुई चाय की चुसकियां ले रहे थे कि दरवाज़े पर किसी बूढ़ी आवाज़ ने हाँक लगाई,
“मालिक।”
“कौन?”
“मेहतर है आपका... साहिब जी का बुलाबे आए है।”
दादा ने घबरा कर एहतियात से अपनी प्याली तबाक़ में रखी और जूते पहनते हुए बाहर चले गए अपने भले दिनों में तो इस तरह शायद वो कमिशनर के आने की ख़बर सुनकर भी न निकले होंगे।
में एक लंबी टहल लगा कर जब वापस आया तो डयोढ़ी में मिट्टी के तेल की डिबिया जल रही थी दादा बावर्चीख़ाने में बैठे चूल्हे की रोशनी में लालटेन की चिमनी जोड़ रहे थे। मैं डयोढ़ी से डिबिया उठा लाया और इसरार करके उनसे चिमनी लेकर जोड़ने लगा।
हाथ भर लंबी लालटेन की तेज़ गुलाबी रोशनी में हम लोग देर तक बैठे बातें करते रहे। दादा मेरे बुज़ुर्गों से अपने ता’ल्लुक़ात बता रहे। अपनी जवानी के क़िस्से सुनाते रहे। कोई आधी रात के क़रीब दादी ने ज़मीन पर चटाई बिछाई और दस्तर-ख़्वान लगाया। बहुत सी अनमेल बेजोड़ असली चीनी की प्लेटों में बहुत सी क़िस्मों का खाना चुना। शायद मैंने आज तक इतना नफ़ीस खाना नहीं खाया।
सुबह मैं देर से उठा... यहां से वहां तक पलंग पर नाशता चुना हुआ था, देखते ही में समझ गया कि दादी ने रात-भर नाशता पकाया है... जब में अपना जूता पहनने लगा तो रात की तरह इस वक़्त भी दादी ने मुझे आँसू भरी आवाज़ से रोका। मैं माफ़ी मांगता रहा। दादी ख़ामोश खड़ी रहीं, जब मैं शेरवानी पहन चुका, दरवाज़े पर यक्का आगया, तब दादी ने काँपते हाथों से मेरे बाज़ू पर इमाम-ए-ज़ामिन बाँधा, उनके चेहरे पर चूना पुता हुआ था। आँखें आँसूओं से छलक रही थीं। उन्होंने रुँधी हुई आवाज़ में कहा, “ये इक्कावन रुपय तुम्हारी मिठाई के हैं और दस किराए के।”
“अरे... अरे दादी... आप क्या कर रही हैं!” अपनी जेब में जाते हुए रूपयों को मैंने पकड़ लिये।
“चुप रहो तुम... तुम्हारी दादी से अच्छे तो ऐसे वैसे लोग हैं जो जिसका हक़ होता है, वो दे तो देते हैं... ग़ज़ब ख़ुदा का, तुम ज़िंदगी में पहली बार मेरे घर आओ और मैं तुमको जोड़े के नाम पर एक चिट भी न दे सकूं... मैं... भय्या... तेरी दादी तो फ़क़ीर हो गई... भिकारन हो गई...”
मा’लूम नहीं कहाँ कहाँ का ज़ख़्म खुल गया था। वो धारों धार रो रही थीं, दादा मेरी तरफ़ पुश्त किए खड़े थे और जल्दी जल्दी हुक़्क़ा पी रहे थे। मुझे रुख़्सत करने दादी डयोढ़ी तक आईं लेकिन मुँह से कुछ न बोलीं। मेरी पीठ पर हाथ रखकर और गर्दन हिला कर रुख़्सत कर दिया।
दादा क़ाज़ी इनाम हुसैन ता’लुकदार भुसवल थोड़ी देर तक मेरे यक्के के साथ चलते रहे, लेकिन न मुझसे निगाह मिलाई न मुझसे ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा। एक-बार निगाह उठा कर देखा और मेरे सलाम के जवाब में गर्दन हिला दी।
सिधौली जहां से सीतापुर के लिए मुझे बस मिलती अभी दूर था। मैं अपने ख़यालों में डूबा हुआ था कि मेरे यक्के को सड़क पर खड़ी हुई सवारी ने रोक लिया। जब मैं होश में आया तो मेरा यक्के वाला हाथ जोड़े मुझसे कह रहा था... “मियां... अली शाह जी भुसवल के साहूकार हैं उनके यक्के का बम टूट गवा है, आप बुरा ना मानो तो अली बैठ जाएं।”
मेरी इजाज़त पाकर उसने शाह जी को आवाज़ दी। शाह जी रेशमी करता और महीन धोती पहने आए और मेरे बराबर बैठ गए और यक्के वाले ने मेरे और उनके सामने ‘पीतल का घंटा’ दोनों हाथों से उठा कर रख दिया। घंटे के पेट में मुंगरी की चोट का दाग़ बना था। दो अंगुल के हाशिए पर सुराख़ में सूत की रस्सी पड़ी थी। उसके सामने ‘क़ाज़ी इनाम हुस्न आफ़ भुसवल स्टेट अवध’ का चांद और सितारे का मोनोग्राम बना हुआ था, मैं उसे देख रहा था और शाह जी मुझे देख रहे थे। और यक्के वाला हम दोनों को देख रहा था। यक्के वाले से रहा ना गया, उसने पूछ ही लिया,
“का शाह जी घंटा भी ख़रीद लाएव?”
“हाँ! कल शाम का मालूम नाई, का वक़्त पड़ा है मियां पर कि घंटा दिए देहन बुलाए के। आयी...”
“हाँ वक़्त वक़्त की बात है शाह जी, नाहीं तो ई घंटा...”
“ए घोड़े की दुम रास्ता देख चल...” ये कह कर उसने चाबुक झाड़ा।
“मैं... मियां का बुरा वक़्त...” चोरों की तरह बैठा हुआ था। मुझे मा’लूम हुआ कि ये चाबुक घोड़े के नहीं मेरी पीठ पर पड़ा है।
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