Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

मौत का राज़

राजिंदर सिंह बेदी

मौत का राज़

राजिंदर सिंह बेदी

MORE BYराजिंदर सिंह बेदी

    इस बे-रब्त ना-हमवार ज़मीन के शुमाल की तरफ़ नबाताती टीलों के दामन में, मैं ने गंदुम की बत्तीसवीं फ़सल लगाई थी और सरतानी सूरज की हयात कश-ए-तमाज़त में पकती हुई बालियों को देख कर मैं ख़ुश हो रहा था। गंदुम का एक एक दाना पहाड़ी दीमक के बराबर था। एक ख़ोशे को मसल कर मैं ने एक दाना निकाला। वो किनारों की तरफ़ से बाहर को क़दरे पिचका हुआ था। उस की दरमियानी लकीर कुछ गहरी थी, ये इस बात का सुबूत था कि गंदुम अच्छी है। उस में ख़ुर्दनी माद्दा ज़्यादा है और गोरखपुर की मंडी में इस साल इस की फ़रोख़्त नफ़ा-बख़्श होगी।

    मेरे ख़यालात कुछ यकसूई इख़्तियार कर रहे थे। उस वक़्त ज़िंदों में से मेरे नज़्दीक कोई था। आप पूछ सकते हैं कि अगर ज़िंदों में से कोई तुम्हारे नज़दीक था तो क्या मुर्दों की याद तुम्हारे वीरान-ख़ाना-ए-दिल को आबाद कर रही थी?.... मेरा जवाब इस्बात में है। मैं आप से एक और बात भी इसरार से मनवाना चाहता हूँ, और वो ये है कि मैं मुर्दों का तसव्वुर ही नहीं कर रहा था, बल्कि उन को अपने सामने, पीछे, दाएँ और बाएँ कथा कली अंदाज़ से रक़्स करते, हंसते और ख़ौफ़ से काँपते हुए देख रहा था। जिस तरह आपकी दाढ़ी का बाल बाल मुझे अलाहदा नज़र आता है और आप की तमाज़त-ज़दा आँखों के सुर्ख़ डोरे देख रहा हूँ, उसी तरह मैं उन्हें देख रहा था। उन में से किसी का चेहरा जमवी मोतिया की उस कली की मानिंद, जिस का चेहरा सुब्ह के वक़्त काश्मीरी बहार की शबनम ने धो दिया हो, शगुफ़्ता हो कर चमक रहा था और किसी के चेहरे पर झुर्रियाँ और गहरी गहरी लकीरें थीं। शायद वो किसी नतीजा ख़ेज़ तजुर्बा ज़िंदगी की निशानियाँ थीं।

    वो गंदुम के खेत के किनारों पर खेल रहे थे, ही बत्तीस साला शीशम, जिस के घने साया-दार फैलाव के नीचे मैं आलती पालती मारे बैठा था, अपने हल्के हल्के पाँव को नचा रहे थे, बल्कि वो ख़ुद मेरे जिस्म के अंदर थे.... हाएं! आप हैरान क्यूँ खड़े हैं। आप पूछते हैं कि मैं कहाँ था?... सुनिए तो.... मैं जिस्म की उस हालत में था, जिसे इन्हिमाक की आख़िरी मंज़िल कहना चाहिए। मैं ख़ुद अपने जिस्म से अलाहदा हो कर उसे यूँ देख रहा था, जिस तरह पुरानी हिकायतों का शहज़ादा किसी ऊंचे और नबाताती टीले पर खड़ा दूर से उस शहज़ादी के महल का उठते हुए धुएं के वजूद से अंदाज़ा लगाए, जिसने अपनी शादी मशरूत रक्खी हो।

    वो रक़्साँ, ख़ंदाँ, लर्ज़ां लोग मेरे बुज़ुर्ग थे.... बच्चा अपने वालदैन की तस्वीर होता है। मेरा बाप अपने बाप की तस्वीर था। इसलिए मैं अपने दादा की तस्वीर भी हो सकता हूँ और यूँ इर्तिक़ाई मनाज़िल तय करने की वजह से अपने बुज़्रगान-ए-सल्फ़ की, अगर साफ़ नहीं तो धुँदली सी तस्वीर ज़रूर हूँ.... हिंदुस्तानी तहज़ीब दो नस्लों से शुरू है। एक द्राविड़ और दूसरी आर्या। मैं आर्या नस्ल से हूँ। मेरा दराज़ क़द, सफ़ेद रंग, सियाह चश्म, हस्सास ख़ुश-बाश और क़दरे वहम परस्त होना, इस बात का सबूत है.... ये बात मालूम करने की मेरी ज़बरदस्त ख़्वाहिश थी कि मौत का राज़ क्या है। मरते वक़्त मरने वाले पर क्या क्या अमल ज़ुहूर पज़ीर होता है। मुझे ये यक़ीन दिलाया जा चुका था, कि माद्दा और रूह ला-फ़ानी हैं। ऐसी हालत में अगर वो मौत के अमल में अपनी हैयत बदलते हैं, तो उस वक़्त उनकी क्या हालत होती है... आख़िर मरने वाले गए कहाँ? वो जा भी कहाँ सकते हैं, सिवाए इस बात के कि वो कोई दूसरी शक्ल इख़्तियार कर लें, जिसे हम लोग आवा गवन कहते हैं। क्यूँ कि मुख़्तलिफ़ हईयात में ज़ुहूर पज़ीर होने के बाद फिर उस ज़र्रे को जिससे हम पैदा हुए हैं, आदमी की शक्ल दी जाती है।

    ये बात सुन कर शायद आप बहुत ही मुतअज्जिब होंगे कि मैं अपने सामने अपनी पैदा होने वाली औलाद को भी देख रहा था। मेरे सामने एक घुंगराले सियाह बालों और चमकते हुए दाँतों वाला लहीम-ओ-शहीम बच्चा आया, जो आज से हज़ारों साल बाद पैदा होगा और जो मेरी एक धुँदली सी तस्वीर था। मैं ने उसे गोद में उठा लिया और छाती से लगा, भींच भींच कर प्यार करने लगा। उसे प्यार करने लगा। उसे प्यार करते वक़्त मुझे फ़क़त यही महसूस हुआ, जैसे मैं अपना दायाँ हाथ बाएँ कंधे और बायाँ हाथ दाएँ कंधे पर रख कर अपने आप को भींच रहा हूँ। उस बच्चे ने कहा।

    “बड़े बाबा…. पर्णाम…. मैं जा रहा हूँ।”

    मेरा होने वाला बच्चा और बुज़ुरगान-ए-सल्फ़ तमाम वापस जा रहे थे। इस इन्हिमाक के आलम में मैं अभी तक दूर खड़ा यही महसूस कर रहा था कि मेरा जिस्म ज़मीन का एक ऐसा हिस्सा है, जिस में मेरे बुज़ुरगान-ए-सल्फ़ की ग़ारें और आइन्दा नस्लों के शानदार महल हैं, जिन में बरसों के मुर्दे और नए आने वाले अपने क़दीम और जदीद तरीक़ों से ज़ौक़ दर ज़ौक़ दाख़िल हो रहे हैं।

    ....घबराइए नहीं, और सुनिए तो.... ये मेरी बातें जो ब-ज़ाहिर पागलों की सी दिखाई देती हैं। दर-अस्ल हैं बड़ी मेहनत ख़ेज़.... मुझे कुछ समझा लेने दो.... फिर मैं आप को अदबी मज़मून में तशबीह देने का तरीक़ा बताऊँगा। कल ही आप कह रहे थे कि दरख़्तों पर गिध शाम के वक़्त बैठे यूँ दिखाई दे रहे थे, जैसे किसी ऊंचे शीशम पर सुनहरी तरबूज़ औंधे लटक रहे हों.... कितनी भोंडी तशबीह कही आपने!.... ये तो मैं जानता ही था कि रूह के अलावा माद्दा भी फ़ना नहीं होता। मगर इस बात को देखने की एक आग सी हर वक़्त सेना में सुलगती रहती थी, कि मौत के आलम में ब-ज़ाहिर फ़ना होते हुए शख़्स, यानी ज़र्रे की मजमूई सूरत को किन किन तख़रीबी-ओ-तामीरी मदारिज से गुज़र कर दूसरी हैयत में आना पड़ता है.... यानी..... आख़िर..... मौत का राज़ क्या है?

    वो ज़र्रा-ए-अज़ीम, वो जुज़-ला-यतजज़्ज़ा जो कि तमाम अर्ज़ी समावी ताक़त का मग़ज़ है, कैसा मुनज़्ज़म है। मिसाल के तौर पर अजराम फल्की की गर्दिश का निज़ाम लीजिए। अगर उनमें से कोई भी जुर्म अपने मख़सूस रास्ता से एक इंच भी इधर उधर हट जाए, तो कैसी क़यामत बपा हो। चाँद गरहन के मौक़ा पर हम लोग दान पुन भी करते हैं, तो इसी लिए कि वही एक ऐसा वक़्त हो सकता है, जब कि अजराम फल्की का कशिश-ए-सक़ल से इधर उधर हो कर और आपस में टकरा कर मादा ह्यूला की शक्ल इख़्तियार कर लेना मुम्किन है। हम आर्या.... हस्सास, मनमौजी और तौहम-परस्त लोग ये नहीं चाहते कि हम कोई बुरा काम करते हुए तबाह हो जाएँ और वो माद्दा ह्यूला का एक हिस्सा बन जाएँ। दान पुन्य से अच्छा काम और क्या होगा?

    ....आप उसे तसव़्वुफ, वहम, और ख़ुश्क और तुर्श मज़मून कहीं, मगर ये उन हरसा इक़्साम से बालातर है। हाँ हाँ! आपने पूछा था कि ज़र्रा-ए-अज़ीम किया है.... ये जानदार शय की इब्तिदाई सूरत है। ये औरत और मर्द दोनों में ज़िंदा है। तमाम अर्ज़ी-ओ-समावी ताक़त का मर्कज़ है। शायद इस से बेहतर उस की कोई तारीफ़ नहीं कर सकता। उस के मुतअल्लिक़ मैं एक क़यास ग़ैर मुसद्दिक़, जो ब-ज़ाहिर यावागोई दिखाई देता है, मगर है बहुत जामे और दुरुस्त.... दोहरा देना चाहता हूँ। वो कयास-ए-ग़ैर मुसद्दिक़ रियाज़ी तबइय्यात के एक बड़े माहिर ने कहा था।

    “ज़र्रा..... जुज़्व-ला-यतजज़्ज़ा.... हम नहीं जानते क्या क्या कुछ करता है..... हम नहीं जानते कैसे......?.....”

    शायद रियाज़ी दानों ने रियाज़ी क़वाएद ज़र्ब-ओ-तक़सीम उस ज़र्रे से ही सीखे हैं, वो दो से चार, चार से आठ और आठ से चौगुना हो जाता है..... और फिर हज़ारों से हैरानकुन तौर पर एक..... ये तो सब जानते हैं कि वो ये से वो हो जाता है। मगर इस बात से पर्दा-ए-राज़ नहीं उठा, कि वो कैसे? जिस दिन ये पर्दा-ए-राज़ उठेगा, तो मौत का राज़ मुनकशिफ़ होने में बाक़ी रह ही क्या जाएगा?

    चंद दिन हुए मैं इसी इज़्तिराब-ए-ज़हनी में मुब्तला बैठा था और सरतानी सूरज गंदुम की बालियों को पका रहा था। बालियाँ बिलकुल सूख चुके थे और उन की दाढ़ी इस क़दर ख़ुश्क हो गई थी, एक एक बाल कांटे की मानिंद चुभता था। कुछ दबाने से बाल ख़ुद बख़ुद झड़ने लगते। सट्टे को मसलते मसलते उस का एक बाल मेरे नाख़ुन में उतर गया और लाखों ज़र्रात, जिनकी मैं मजमूई सूरत हूँ, उनमें से एक ज़र्रे को जो कि इन्फ़िरादी तौर पर ज़र्रा-ए-अज़ीम से कम नहीं, उस ने आगे धकेल दिया। वो ज़र्रा जो आगे धकेला गया नामालूम गुज़श्ता ज़माने में मेरा कोई बुज़ुर्ग था, या शायद आइन्दा नस्लों में से कोई.... ये मैं जान सका। बहरहाल सट्टे का बाल उन दोनों में से था। वो एक बैरूनी ख़ारिजी चीज़ थी, जिसको मेरे निज़ाम-ए-जिस्म में चले आना उस मुसाफ़िर की मदाख़लत-ए-बेजा की मानिंद था जो लफ़्ज़ शारा-ए-आम नहीं है पढ़ते हुए भी अंदर घुस आए। ये क़तई मुमानिअत की वजह ही थी कि दर्द की टीस उठ उठ कर मुझे लर्ज़ा बर-इंदाम कर रही थी....

    भला एक कुत्ता अपनी गली में दूसरे कुत्ते को नहीं आने देता, तो मेरे क़ाबिल-ए-प्रसतिश बुज़ुर्गों और मुअर्रिक-उल-आरा काम करने वाली आइन्दा नस्लों की अज़ीमुश्शान हस्तियाँ इस ख़ारिजी चीज़ की मदाख़्लत-ए-बेजा को कब बर्दाश्त कर सकती थीं। उफ़ दर्द! मासिवा उस चीज़ के.... इस ज़र्रे के जो कि हमारी आइंदा नस्लों का अपनी ज़रब तक़्सीम के साथ रुहानी और जिस्मानी बुत बने, या हमारे बुज़ुर्गों से हमें विरसे में आए, किसी और चीज़ को मुतलक़ दख़ल नहीं। माद्दा और रूह दोनों उस वक़्त तक चैन नहीं पाते जब तक ख़ारिजी माद्दे को हर एक तकलीफ़ सह कर जिस्म से बाहर नहीं फेंक दिया जाता।

    वो ज़र्रा तो हर जुंबिश से असर पज़ीर होता है। अगर आपने ग़लत-रवी से अपने जिस्म-ओ-रूह के नामुनासिब इस्तेमाल से उन्हें किसी तरह मफ़लूक और नातवाँ बना दिया है, तो आप के वो ज़र्रे जिन्होंने आपके बेटे और पोते बनना है, मफ़लूक और नातवाँ हालत में आपके सामने कर आप के दिली और ज़हनी इज़्तिराब का बाइस होंगे। वो उसे क़िस्मत-ओ-तक़दीर कहेंगे। लेकिन अगर क़िस्मत की तारीफ़ मुझसे पूछें, तो वो ये है सोहबत नेक-ओ-बद के असर के अलावा जो चीज़ पूरी ज़िम्मेदारी से हमारे बुज़ुर्गों ने हमें दी है। वो हमारी क़िस्मत है। इस लिए आप जो भी फे़ल करें, सोच कर करें। उंगली भी हिलाएँ तो सोच कर..... याद रखिए। ये एक मामूली बात नहीं है.... अब शायद आप ज़र्रे के क़ौल-ओ-फे़ल से कुछ वाक़िफ़ हो गए होंगे।

    जिस दिन सटे का बाल मेरे नाख़ुन में दाख़िल हवा में बहुत मुज़्तरिब रहा...... शाम को मैं घबराया हुआ क़रीब ही शहर के एक बड़े अख़्तर-शनास के पास गया। उस ने मेरी रास वग़ैरा देखते हुए क़ियाफ़ा लगाया और मुझे कहा कि वृहसपत का असर तुम्हें हर बला से महफ़ूज़ रक्खेगा और तुम्हारी उम्र बहुत लंबी है। इस का शायद ख़याल हो कि दराज़ी-ए-उम्र की पेशीन-गोई सुन कर ये माल-दार ज़मींदार अपने बाएँ हाथ की उंगली में चमकती हुई तिलाई अँगूठी उतार कर देगा। मगर ये बात सुन कर मुझे सख़्त बे-चैनी हुई। मायूसी के आलम में मैं ने उसे उस की क़लील फ़ीस..... एक नारियल, आटा और पाँच पैसे दे दिए..... मैं तो मरना चाहता था और देखना चाहता था कि इस हालत में मुझ पर क्या अमल होता है। मुझे इस बात का भी शौक़ था कि मैं इस राज़ को, जिसकी बाबत बड़े बड़े हकीम और तिब्बियात के माहिर कह चुके हैं।..... वो करता है कुछ..... हम नहीं जानते कैसे..... तश्त-ए-अज़-बाम कर दूँ और दुनिया में पहला शख़्स बनूँ जो कि दूसरी हय्यत में आते हुए अपनी हैरत-अंगेज़ याद-दाश्त के ज़रिये से दुनिया पर वाज़ेह कर दे कि ज़र्रे को ये हालत पेश आती है...... और वो इस शक्ल में तब्दील होता है।

    इस बात के मुशाहदे के लिए ख़ुद मरना लाज़िमी था। मगर आक़िल अख़्तर शनास ने इस के बर-अक्स दराज़ी-ए-उम्र की रूह फ़र्सा ख़बर सुनाई थी। आत्मघात, ख़ुदकुशी एक पाप था, जिस का इर्तिकाब सिर्फ़ मेरे बुज़ुर्गों के नाम पर धब्बा लगाता था, बल्कि मौजूदा बच्चों और आइन्दा नस्लों पर भी असर अंदाज़ होता था। चुनांचे मैं ने ख़ुदकुशी के ख़याल को बिलकुल बातिल गिरदाना।

    मैं जंगल में एक टीले पर बैठा था। वहाँ से दरिया-ए-गंडक के किसी मुआविन के एक आबशार की आवाज़ साफ़ तौर पर कानों में रही थी और चूँकि मुझे वही बात ख़ुश कर सकती थी जो कि मेरे दिल को मुज़्तरिब करे, इस लिए गंडक के मुआविन के आबशार की दिल को बिठा देने वाली आवाज़ मुझे भा रही थी। एक पत्थर को उल्टाते हुए मैं ने बहुत से कीड़े मकोड़े देखे। फिर मैं ने कहा:।

    शायद इस आबशार की आवाज़ और मौत के राग में कुछ मुशाबिहत हो..... शाम हो चुकी थी, सूरज मुकम्मल तौर पर डूबा भी नहीं था कि सर पर चांद का बे-नूर और काग़ज़ी रंग का जिस्म दिखाई देने लगा। पत्थरों में से एक जिला देने वाली भड़ास निकल रही थी। यकायक मुझे एक ख़याल आया। एक तरकीब सूझी जिससे मैं ज़र्रे की हैयत बदलने का मुशाहिदा कर सकता था। यानी मौत का अमल भाँप सकता था। उसे हम ख़ुद-कुशी भी नहीं कह सकते। वो सिर्फ़ मुशाहिदा की आख़िरी मंज़िल है। वो ये.... कि गंडक के मुआविन के आबशार से आध मेल बहाव की तरफ़, जहाँ पानी की ख़ौफ़-नाक लहरें एक पथरीले टीले को अमूदन टकरा कर अपना दम तोड़ते हुए जुनूब मशरिक़ की तरफ़ गंडक से मिलने के लिए बह निकलती हैं, नहाने के लिए उतर जाऊँ और ग़ैर इरादी तौर पर पानी के अंदर ही अंदर गहराई और तेज़ बहाव की तरफ़ आहिस्ता-आहिस्ता चलता जाऊँ और ये सूरत पैदा हो, कि या मेरा पाँव किसी आबी झाड़ी में उड़ जाए, या कोई जानवर मुझे खींच ले, या पानी का कोई ज़बर दस्त रेला वो अमल मेरे सामने ले आए जिससे ज़र्रा को कोई दूसरी सूरत मिले..... शायद आप उसे भी ख़ुद-कुशी कहें मगर इस ग़ैर इरादी फे़अल को मैं तो क़ुदरती मौत कहूँगा।

    चुनांचे मरने से बहुत पहले मैं ने अपने तसव्वुर में कनखल.... गंगा माई के चरणों पर सर रखा, और सौगन्द ली कि मैं ज़रूर इस ग़ैर इरादी फे़अल को पाया-ए-तकमील तक पहुंचाऊँगा।

    गंडक की मुआविन, आबशार से एक मील बहाव की तरफ़ भी उस तेज़ रफ़्तारी से बह रहा था, बावजूद ये कि अमूदन चट्टान से टकराते हुए उस की लहरें अपना दम तोड़ चुकी थीं।

    मैं कमर तक मुक्ती नाथ और धौलागिरि के इर्द-गिर्द की पहाड़ियों से आए हुए बर्फ़ानी पानी में दाख़िल हो चुका था। मैं जल्दी जल्दी आगे बढ़ना चाहता था, क्यूँ कि ऐसा करना इरादतन अपने आपको मार डालना था। कुछ आगे बढ़ते हुए मैं ने आहिस्ता आहिस्ता पाँव को अक़्लीदसी निस्फ़ दायरा की शक्ल में घुमाना शुरू किया और तक़रीबन पाँच मिनट तक ऐसा करता रहा, ताकि कोई पानी का रेला मुझे बहा ले जाए, या कोई तेंदुवा या घड़ियाल पानी में टांग पकड़ कर मुझे घसीट ले। मगर ऐसा हुआ।.... मअन मेरा पाँव एक आबी झाड़ी में उलझ गया। और मैं पानी में ग़ोते खाने लगा। मेरा पाँव फिसला और दूसरे लम्हे में पानी के रेले बड़े ज़ोर शोर से मेरे सर से गुज़र रहे थे।

    कुछ देर तक तो मैं ने अपना दम साधे रक्खा। मगर कब तक? बेहोश होने से पहले मुझे चंद एक बातें याद थीं कि मेरी टांगें और हाथ तेज़ पानी में काँपते हुए इधर उधर चल रहे थे। बाहर निकलते हुए सांस से चंद बुलबुले उठ कर सतह की तरफ़ गए। मेरे दिमाग़ में ज़िंदा रहने की एक ज़बरदस्त ख़्वाहिश ने उकसाहट पैदा की। इस कोशिश में में किसी चीज़ को पकड़ने के लिए पानी में इधर उधर हाथ पाँव मारने लगा, मगर अब मैं पानी की ज़िद से बाहर सकता था, अगरचे मैं ने उस के लिए बहुत कुछ जद-ओ-जहद की।

    इस के बाद मेरी याद दाश्त मुख़्तल होने लगी...... मेरे बुज़ुर्गान..... कंखल..... पुरानी हिकायतों का शहज़ादा.... मौत का राज़.... मुक्ती नाथ..... कखल..... मौत का राज़..... उस के बाद एक नीला सा अंधेरा छा गया। अंधेरे में कभी कभी रौशनी की एक झलक एक बड़े से कीड़े की शक्ल में दिखाई देती..... फिर पुरानी हिकायतों का शहज़ादा.... ज़रा.... मौत का अमल.... ख़ामोशी और अंधेरा ही अंधेरा!!

    इस मुकम्मल बे-होशी में मुझे एक नुक़्ता सा दिखाई दिया, जो कि बराबर फैलता गया। शायद ये वही ज़र्रा-ए-अज़ीम था जिसकी बाबत मैं ने बहुत कुछ कहा है। जो बसीत होता गया.... फैल कर एक झिल्ली की सी सूरत में मेरे जिस्म के इर्द गिर्द लिपट गया। इस तरह कि अब पानी उस में दाख़िल नहीं हो सकता था। मुझे यूँ महसूस हुआ, जैसे में किसी ख़ला में हूँ। जहाँ सांस लेना भी एक तकल्लुफ़ है।

    ज़र्रा-ए-अज़ीम से आवाज़ आने लगी।

    मौत के अमल में तीन हालतें होती हैं। क़ब्ल-अज़ मौत, मौत, बाद अज़ मौत। अव्वल हालत में हो सकता है कि दूसरी हालत तुम पर तारी होने से पहले तुम ज़िंदा रह जाओ। क़ुदरतन इस में तुम्हें दूसरी हालत का एहसास नहीं हो सकता। दूसरी हालत में तुम इस बात को एक आरिज़ी अरसा के लिए जान सकते हो, जिसकी तुम इतनी ख़्वाहिश लिए हुए हो, मगर इस का इज़हार नहीं कर सकते। माबाद मौत तुम्हें ज़िंदगी की पहली निशानी गोयाई की क़ुव्वत अता की जाती है। फिर याद-दाश्त को जो अव्वल दोम हालत में तुम्हारे साथ होती है, उसे ख़ैरबाद कहना होता है। ज़र्रे को फ़रामोशी अता कर के इस पर मेहरबानी की जाती है। ऐन उसी तरह जैसे आदमी को ग़ैब से ना-आश्ना रख कर उस पर करम किया जाता है.... वो राज़ याद-दाश्त की मुकम्मल तहलील में पिनहाँ है।

    याद-दाश्त की मुकम्मल तहलील। मैं ने उन अलफ़ाज़ को ज़हन में दोहराते हुए कहा याद-दाश्त की तहलील.... क्या हमारी नस्लें भी हमारी याद-दाश्त हैं?.... और क्या उस की मुकम्मल तहलील पर मैं वो राज़ दुनिया वालों के सामने तश्त-ए-अज़-बाम कर सकता हूँ?..... मैं ज़िंदा रहना चाहता हूँ।..... ज़िंदगी की इस ख़्वाहिश के साथ ही मैं ने अपने आपको मुक्ती नाथ और धौलागरि के इर्द-गिर्द की पहाड़ियों में से बह कर आते हुए बर्फ़ानी पानी की सतह पर पाया। झिल्ली सी मेरे जिस्म पर से उतर चुकी थी। ज़िंदगी की एक और ख़्वाहिश के पैदा होते ही गंडक के मुआविन के एक रेले ने मुझे किनारे पर फेंक दिया। उस वक़्त चाँदनी-रात में हआ तेज़ी से चल कर सांस की सूरत में मेरे एक एक मसाम में दाख़िल हो रही थी।

    स्रोत :

    संबंधित टैग

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए