Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
Allama Iqbal's Photo'

अल्लामा इक़बाल

1877 - 1938 | लाहौर, पाकिस्तान

महान उर्दू शायर, पाकिस्तान के राष्ट्र-कवि जिन्होंने 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' और 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी' जैसे गीतों की रचना की

महान उर्दू शायर, पाकिस्तान के राष्ट्र-कवि जिन्होंने 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' और 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी' जैसे गीतों की रचना की

अल्लामा इक़बाल के शेर

257.8K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले

ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं

तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं

अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ

मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा

तिरे सामने आसमाँ और भी हैं

दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब

क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो

नशा पिला के गिराना तो सब को आता है

मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी

फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का

हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा

अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी

तू अगर मेरा नहीं बनता बन अपना तो बन

इल्म में भी सुरूर है लेकिन

ये वो जन्नत है जिस में हूर नहीं

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है

पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है

हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी

ख़ुदा करे कि जवानी तिरी रहे बे-दाग़

अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल

लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे

नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर

तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में

हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक

कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक

ग़ुलामी में काम आती हैं शमशीरें तदबीरें

जो हो ज़ौक़-ए-यक़ीं पैदा तो कट जाती हैं ज़ंजीरें

मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने

मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन सका

सौ सौ उमीदें बंधती है इक इक निगाह पर

मुझ को ऐसे प्यार से देखा करे कोई

ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी

जिस रिज़्क़ से आती हो परवाज़ में कोताही

उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में

नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में

समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दोस्ताँ वालो

तुम्हारी दास्ताँ तक भी होगी दास्तानों में

ढूँडता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने आप को

आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी

उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो

यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो

तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो

अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी

ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में नूरी है नारी है

तमन्ना दर्द-ए-दिल की हो तो कर ख़िदमत फ़क़ीरों की

नहीं मिलता ये गौहर बादशाहों के ख़ज़ीनों में

इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में

या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा

तिरे आज़ाद बंदों की ये दुनिया वो दुनिया

यहाँ मरने की पाबंदी वहाँ जीने की पाबंदी

जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में

बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते

नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से

ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रख़ेज़ है साक़ी

बातिल से दबने वाले आसमाँ नहीं हम

सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा

वतन की फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है

तिरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में

अक़्ल को तन्क़ीद से फ़ुर्सत नहीं

इश्क़ पर आमाल की बुनियाद रख

बुतों से तुझ को उमीदें ख़ुदा से नौमीदी

मुझे बता तो सही और काफ़िरी क्या है

यक़ीं मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम

जिहाद-ए-ज़िंदगानी में हैं ये मर्दों की शमशीरें

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी

बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ

अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं

ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं

बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ

कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर

है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़

अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद

तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया

मैं ही तो एक राज़ था सीना-ए-काएनात में

सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है

बे-ख़बर जज़ा की तमन्ना भी छोड़ दे

अंदाज़-ए-बयाँ गरचे बहुत शोख़ नहीं है

शायद कि उतर जाए तिरे दिल में मिरी बात

मुझे रोकेगा तू नाख़ुदा क्या ग़र्क़ होने से

कि जिन को डूबना है डूब जाते हैं सफ़ीनों में

कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है

बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की

नशेमन सैकड़ों मैं ने बना कर फूँक डाले हैं

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को

कि मैं आप का सामना चाहता हूँ

तेरा इमाम बे-हुज़ूर तेरी नमाज़ बे-सुरूर

ऐसी नमाज़ से गुज़र ऐसे इमाम से गुज़र

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए