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असद अली ख़ान क़लक़

1820 - 1879 | लखनऊ, भारत

अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह के प्रमुख दरबारी और आफ़ताबुद्दौला शम्स-ए-जंग के ख़िताब से सम्मानित शायर

अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह के प्रमुख दरबारी और आफ़ताबुद्दौला शम्स-ए-जंग के ख़िताब से सम्मानित शायर

असद अली ख़ान क़लक़ के शेर

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अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का

बस इक निगाह पे ठहरा है फ़ैसला दिल का

अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत रही

दुश्मनी कर के मिरे दोस्त ने मारा मुझ को

सिंदूर उस की माँग में देता है यूँ बहार

जैसे धनक निकलती है अब्र-ए-सियाह में

आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल

बुतो इतना सताओ ख़ुदा-रा मुझ को

बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं

किस दिन बहार आई मैं दीवाना कब हुआ

होंठों में दाब कर जो गिलौरी दी यार ने

क्या दाँत पीसे ग़ैरों ने क्या क्या चबाए होंठ

फिर मुझ से इस तरह की कीजेगा दिल-लगी

ख़ैर इस घड़ी तो आप का मैं कर गया लिहाज़

दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर

दामन अबद में है तो गरेबाँ अज़ल में है

करो तुम मुझ से बातें और मैं बातें करूँ तुम से

कलीम-उल्लाह हो जाऊँ मैं एजाज़-ए-तकल्लुम से

आसार-ए-रिहाई हैं ये दिल बोल रहा है

सय्याद सितमगर मिरे पर खोल रहा है

ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहे आने दो आने दो

मैं बोसे लूँगा सोते में मुझे लपका है चोरी का

वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है

मिला है गेसू-ए-जानाँ से सिलसिला दिल का

ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है

हमें छेड़िए हम हैं फ़लक सताए हुए

उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर

नाम को दुनिया में हैं अब साहब-ए-इस्लाम हम

ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का

बुतान-ए-दहर ग़ालिब गए हैं का'बा-ओ-दिल पर

परी-ज़ाद जो तू रक़्स करे मस्ती में

दाना-ए-ताक हर इक पाँव में घुंघरू हो जाए

ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है

बना है शौक़-ए-दिल दल्लाल बाज़ार-ए-मोहब्बत का

रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ

बाज़ार की मिठाई भी होती है क्या लज़ीज़

यही इंसाफ़ तिरे अहद में है शह-ए-हुस्न

वाजिब-उल-क़त्ल मोहब्बत के गुनहगार हैं सब

यार की फ़र्त-ए-नज़ाकत का हूँ मैं शुक्र-गुज़ार

ध्यान भी उस का मिरे दिल से निकलने दिया

करेंगे हम से वो क्यूँकर निबाह देखते हैं

हम उन की थोड़े दिनों और चाह देखते हैं

बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं

ये काजल हम ने यारा है चराग़-ए-माह-ए-ताबाँ पर

याद दिलवाइए उन को जो कभी वादा-ए-वस्ल

तो वो किस नाज़ से फ़रमाते हैं हम भूल गए

चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार

शब-ए-फ़िराक़ में था तुझ से मश्ग़ला दिल का

रुख़ तह-ए-ज़ुल्फ़ है और ज़ुल्फ़ परेशाँ सर पर

माँग बालों में नहीं है ये नुमायाँ सर पर

क्या कोई दिल लगा के कहे शे'र 'क़लक़'

नाक़द्री-ए-सुख़न से हैं अहल-ए-सुख़न उदास

मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर

कोई नहीं शरीक किसी के गुनाह में

हिम्मत का ज़ाहिदों की सरासर क़ुसूर था

मय-ख़ाना ख़ानक़ाह से ऐसा दूर था

वो एक रात तो मुझ से अलग सोएगा

हुआ जो लज़्ज़त-ए-बोस-ओ-कनार से वाक़िफ़

घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी

कुश्ता-ए-अबरू हूँ मैं क्या ग़ुस्ल-ख़ाना चाहिए

सितम वो तुम ने किए भूले हम गिला दिल का

हुआ तुम्हारे बिगड़ने से फ़ैसला दिल का

'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन

हमारी क़ब्र पर जब मजमा-ए-अहल-ए-सुख़न होगा

मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब

शीर के बदले पिया है मैं ने शीरा ताक का

खुलने से एक जिस्म के सौ ऐब ढक गए

उर्याँ-तनी भी जोश-ए-जुनूँ में लिबास है

छेड़ा अगर मिरे दिल-ए-नालाँ को आप ने

फिर भूल जाइएगा बजाना सितार का

तिरे होंठों से शर्मा कर पसीने में हुआ ये तर

ख़िज़र ने ख़ुद अरक़ पोंछा जबीन-ए-आब-ए-हैवाँ का

आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार

सुब्ह-ए-सादिक़ देती है झूटी गवाही रात की

गुलगश्त-ए-बाग़ को जो गया वो गुल-ए-फ़रंग

ग़ुंचे सलाम करते थे टोपी उतार के

राह-ए-हक़ में खेल जाँ-बाज़ी है ज़ाहिर-परस्त

क्या तमाशा दार पर मंसूर ने नट का किया

कोताह उम्र हो गई और ये कम हुई

जान के तूल-ए-शब-ए-इंतिज़ार देख

हुआ मैं रिंद-मशरब ख़ाक मर कर इस तमन्ना में

नमाज़ आख़िर पढ़ेंगे वो किसी दिन तो तयम्मुम से

ख़त में लिक्खी है हक़ीक़त दश्त-गर्दी की अगर

नामा-बर जंगली कबूतर को बनाना चाहिए

जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया

इत्र खींचा यार के लब ने गुल-ए-तक़रीर का

मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को

बिछाएँगे मुसल्ला चल के हम मेहराब-ए-अबरू में

कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र

क़ैद-ए-मज़हब से जुनूँ ने मुझे आज़ाद किया

नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है

नहीं हम शेर कहते पेशा-ए-फ़र्हाद कहते हैं

मिसाल-ए-आइना हम जब से हैरती हैं तिरे

कि जिन दिनों में था तू सिंगार से वाक़िफ़

उन वाइ'ज़ों की ज़िद से हम अब की बहार में

तोड़ेंगे तौबा पीर-ए-मुग़ाँ की दुकान पर

मुदल्लल जो सुख़न अपना है वो बुर्हान-ए-क़ातेअ' है

तबीअत में रवानी है ज़ियादा हफ़्त-क़ुल्ज़ुम से

जमे क्या पाँव मेरे ख़ाना-ए-दिल में क़नाअ'त का

जिगर में चुटकियाँ लेता है नाख़ुन दस्त-ए-हाजत का

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